चेक बाउंस होने पर जानिए कैसे करें शिकायत…

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हमारे देश में चेक बाउंस होना आम घटना माना जाता है। शायद, इसी कारण अदालतों में चेक बाउंस के लाखों मामले लंबित हैं। इनमें से ज्यादातर मामले एकाउंट में पैसा नहीं होने के कारण दर्ज हुए हैं। हालांकि, चेक सिर्फ एकाउंट में पैसे नहीं होने के कारण बाउंस नहीं होते है। इसके और भी कई कारण हो सकते हैं जैसे चेक पर किए हुए हस्ताक्षर का बैंक खाते से मेल न खाना, तीन महीने से पुराना चेक आदि। भारत सरकार के निगोशिएबल इंस्‍ट्रूमेंट एक्ट 1881 के अनुसार चेक बाउंस होने पर डिफॉल्टर को जुर्माना और जेल भेजने का प्रावधान है।

पिछले वर्ष अगस्‍त में सुप्रीम कोर्ट ने निगोशिएबल इंस्‍ट्रूमेंट एक्‍ट के सेक्‍शन 138 के मूल नियम में बदलाव करते हुए कहा था कि चेक बाउंस के मामले वहीं दर्ज किए जाने चाहिए जहां चेक भुनाने वाले बैंक का ब्रांच है।

इसका मतलब हुआ कि अगर कोई दिल्‍ली का व्‍यक्ति भोपाल में कुछ खरीदारी करता है और उसका भुगतान चेक के जरिए करता है, तो चेक बाउंस होने के मामले में उसे दिल्‍ली आकर सेक्‍शन 138 के तहत प्रोसेक्‍यूशन शुरू करना होगा।

चेक बाउंस होने पर कानूनी प्रावधान
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प्राय: सभी बैंक चेक बाउंस होने पर रिटर्न मेमो देता हैं। मेमो में चेक क्‍यों बाउंस हुआ उसका ब्योरा दिया होता है। चेक मिलने और बाउंस होने पर आप उस चेक को होल्ड कर सकते हैं। इसकी सूचना चेक जारी करने वाले को देनी होती है। फिर उस चेक को आप जारी करने के तीन महीने के भीतर बैंक में जमा करवा सकते हैं। यदि दूसरी बार भी कम पैसों के कारण चेक बाउंस होता है तो आप निर्गत करने वाले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं। चेक बाउंस होने के 30 दिनों के अंदर डिफॉल्टर के पास कानूनी नोटिस भेज सकते हैं। इस नोटिस में चेक क्‍यों बाउंस हुआ इसका पूरा ब्योरा देना होता है। डिफॉल्टर को नोटिस मिलने के बाद 15 दिनों के अंदर बैंक एकाउंट में पैसा डालना होता है। यदि डिफॉल्टर नोटिस मिलने के 15 दिनों के बाद भी एकाउंट में पैसा जमा नहीं करता है तो आप मजिस्ट्रेट कोर्ट में उसके खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं। मजिस्ट्रेट कोर्ट में शिकायत 1 महीने के भीतर करना होता है। मजिस्ट्रेट कोर्ट शिकायत समय-सीमा के अंदर ही दर्ज कराएं। समय सीमा के बाद शिकायत दर्ज कराने पर सुनवाई नहीं होती है। कोर्ट डिफॉल्टर को दो साल की सजा या चेक की रकम के तीन गुना की पेनाल्टी लगा सकता है। हालांकि, मजिस्ट्रेट कोर्ट के फैसले मिलने के एक महीने के भीतर डिफॉल्टर ऊपरी अदालत में अपील कर सकता है।

किराए का चेक बाउंस होने का मामला

मकान मालिक को किरायेदार की ओर से मिला चेक बाउंस होना आम है। इनमें से ज्‍यादातर चेक बाउंस अकाउंट में पैसा नहीं होने के कारण होते हैं या मकान मालिक की ओर से समय पर चेक कैश नहीं कराने के कारण भी होता है। यदि किरायेदार से मिला चेक बाउंस होता है तो मकान मालिक को इसकी जानकारी किरायेदार को देनी होगी। यदि किरायेदार कोई पहल नहीं करता है तो मकान मालिक कानूनी कार्रवाई शुरू कर सकता है। कई मामले में किरायेदार घर के मेंटिनेंस का खर्च किराये से एडजस्ट कराना चाहता है और किराया देने से मना करता है। यदि ऐसे में चेक बाउंस हुआ है तो किरायेदार पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।

लोन की ईएमआई का चेक बाउंस होने पर

ईएमआई का चेक बाउंस होने पर बैंक चेक जारी करने वाले व्‍यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकता है। हालांकि, बैंक एक ईएमआई का चेक बाउंस होने पर ऐसा नहीं कर सकता है। सबसे पहले भारी पेनाल्‍टी लगाई जाती है, उसके बाद लोन डिफॉल्ट चार्ज और चेक बाउंस चार्ज लगाया जाता है। इससे प्रत्येक महीने डिफॉल्ट की राशि बढ़ती जाती है और यह मासिक किस्तों में जुड़ता जाता है। इससे डिफॉल्टर का क्रेडिट रेटिंग भी खराब होता है। यदि बैंक के द्वारा बार-बार नोटिस भेजने के बाद भी डिफॉल्टर बकाया का भुगतान नहीं करता है तो बैंक उसके प्रॉपर्टी को नीलाम कर सकता है।

बिजनेस लेन-देन का चेक बाउंस होने पर

यदि आप एक कारोबारी है और किसी दूसरे कारोबारी का दिया हुआ चेक बाउंस हो जाता है तो भी आप शिकायत दर्ज करा सकते हैं। हालांकि, इससे कारोबारी की साख गिरती है और नए बिजनेस डील करने में समस्या आती हैं। बिजनेस चेक बाउंस होने पर सरकार नए कानून लाने की तैयारी में है। इसमें डिफॉल्टर को जेल नहीं भेज कर लोक अदालत भेजने का प्रावधान हो सकता है।

प्रवीण जैन अधिवक्ता 9406133701
www.praveenjain.in

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धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:- ’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था।  इस संबंध मं न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। 2. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-         उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है। 3. धारा 138 के संबध् में:-         न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।         इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि  ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।       4.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।         उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ। 5. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-         ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया ।  उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।

प्रवीण जैन अधिवक्ता
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