IPC भारतीय दंड संहिता 1860

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भारतीय दंड संहिता IPC 1860 के महत्वपूर्ण तथ्य

अधि. प्रवीण जैन
रायपुर, 9406133701

क्या है ग्राम कचहरी? ग्राम पंचायत, सरपंच, उपसरपंच, और पंचों की शक्तियां एवं अधिकार..!

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भारत गांवों का देश है। देश की अधिकांश जनता गॉँवों में बसती है। ग्रामवासी अशिक्षा एवं गरीबी के शिकार हैं। ग्रामीण विकास हेतु सरकार कटिबध्द है। ग्राम वासियों का सुलभ एवं सस्ता न्याय प्रदान करने हेतु बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 के तहत ग्राम कचहरी की स्थापना का प्रावधान किया गया है।

 

      इसके तहत मुख्य उद्देश्य यह है कि ग्राम वासियों को अपने विश्वास एवं वौट से चुने गये जन प्रतिनिधियों के द्वारा उनके दरवाजे पर ही अगर कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो बिना किसी उलझन एवं परेशानी के, बिना किसी अनावश्यक खर्च के न्याय प्राप्त हो सके। राष्ट्रपिता महात्मा गॉँघी ने यह सपना संजोया था।

 

      भारतीय संविधान के अनुच्छेद-40 में यह वर्णित है कि राज्य सरकार पंचायत का गठन करेगी एवं पंचायत को स्वायत्ता इकाई के रूप में कार्य करने हेतु शक्ति एवं अधिकार प्रदान करेगी। संविधान निर्माताओं के इस अभिलाषा को साकार करने हेतु वर्ष 2006 में बिहार पंचायत राज अधिनियम में विशेष व्यवस्था की गई।

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      बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 की धारा-90 के तहत ग्राम कचहरी की स्थापना का प्रावधान है। ग्राम कचहरी के कुल पंचों के कुल स्थानों का 510 प्रतिशत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के लिए धारा-91 के तहत आरक्षित किए गए हैं, इसका मुख्य उद्देश्य समाज के दबे, कुचले, उपेक्षित एवे अवसरहीनता के शिकार लोगों को मुख्य धारा में लाना है एवं समाज के अन्तिम पायदान पर बैठे लोगों को यह एहसास दिलाना है कि सरकार में उनकी भागीदारी की अहम भूमिका है। महिलाओं को भी मुख्य धारा से जोड़ने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

 

      ग्राम कचहरी की अवधि पांच वषें तक की होगी । ग्राम कचहरी का सरपंच ग्राम पंचायत की मतदाता सूची में नामांकित मतदाताओं के बहुमत द्वारा चुना जाएगा। सरपंच के साथ-साथ उप सरपंच का भी निर्वाचन होगा, ऐसी व्यवस्था की गई है। सरपंच के पद के लिए कुल पदों के 50 प्रतिशत के निकटतम स्थान आरक्षित किए गए हैं ताकि समाज के उपेक्षित लोगों की भागीदारी मुख्य रूप से हो सके।

 

      ग्राम कचहरी में एक सचिव की नियुक्ति की जाएगी एवं ग्राम कचहरी अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सहायता के लिए न्याय मित्र की नियुक्ति करेगा, जो विधि स्नातक होंगे। सरपंच, उप-सरपंच एवं पंचों को सरकार की ओर से प्रशिक्षण की व्यवस्था धारा-94 के तहत की जाएगी।

  सरपंच ग्राम कचहरी का उध्यक्ष होगा। किसी भी व्यक्ति के आवेदन एवं पुलिस रिपोर्ट पर केस एवं मामला दर्ज होगा। ग्राम कचहरी पक्षकार एवं गवाह की उपस्थिति उसी तरीके से करायेगा, जिस तरीके से न्यायालय करती है।

      सरपंच तथा उप-सरपंच को तथाकथित अनियमितता बरतने पर हटाये जाने का भी प्रावधान है ताकि परिस्थिति विशेष में वे निरंकुश न हो जायें एवं कानून की मान्यताओं के खिलाफ कार्य करना शुरू न कर दें। अविश्वास प्रस्ताव द्वारा भी सरपंच को हटाने का प्रावधान धारा-96 में किया गया है। ग्राम कचहरी का कोई भी पंच अपने पद का त्याग कर सकता है। आकस्मिक रिक्ति को भी पूरा किए जाने को प्रावधान है।

      कोई भी केस या मामला सरपंच के समक्ष दायर किया जाएगा एवं संबंधित पक्षकार को भी ग्राम कचहरी के पंचों में से दो पंच चुनने का अधिकार है ऐसी व्यवस्था इसलिए की गई है कि अपने चुने गये पंच के माध्यम से न्याय की प्राप्ति हो सकें एवं न्यायिक प्रक्रिया में ग्राम वासियों की आस्था बनी रहें।

      ग्राम कचहरी की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ग्राम वासियों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाये रखना है। यह अनिवार्य रूप से स्थापित किया गया है कि गा्रम कचहरी की न्यायपीठ किसी भी मामले की सुनवाई करते समय पक्षकारो के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता कराने का प्रयास करेगी। गॉँवों में शिक्षा की कमी एवं गरीबी के कारण आये दिन कोई-न-कोई विवाद हुआ करते हैं एवं ग्राम वासी जटिल कानूनी प्रक्रिया के चक्कर मं फॅँस जाते हैं एवं बाद में चाहते हुए भी आपस में समझौता न कर पाते है। इसलिए इन मुद्दों को ध्यान में रखकर सर्वप्रथम यह प्रावधान किया गया कि किसी भी मुद्दे या विवाद को सामने आने पर ग्राम कचहरी का दायित्व होगा कि पक्षकारें के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण तैयार कर समझौता कराए ताकि ग्राम वासियों की मेहनत की कमाई का पैसा उनके विकास पर खर्च हो न कि कानून की जटिल प्रक्रियाओं पर।

 

      यदि ग्राम कचहरी समझौता कराने में पूर्णत: विफल रहती है, तो वैसी स्थिति में ग्राम कचहरी में ही, जो ग्राम वासियों के समीप में ही होता है, कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करते हुए पूरे मामले की जाँच कर अपना निर्णय देगा। निर्णय लिखित रूप में होगा एवं इस पर सभी सदस्यों का हस्ताक्षर होगा।

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      ग्राम कचहरी को दो तरह की अधिकारिता दी गई है। धारा-106 एवं 107 के तहत दाण्डिक अधिकारिता दी गई है एवं इस बात को मद्देनजर रखते हुए किर् वर्त्‍तमान न्यायिक व्यवस्था में न्यायालय वादों के निष्पादन में वर्षे बरस लगा रहा है, ग्राम कचहरी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा-140, 142, 143, 144, 145, 147, 151, 153, 160, 172,  174, 178, 179, 269, 277, 283, 285, 286, 289, 290, 294, 294(ए), 332, 334, 336, 341, 352, 356, 357, 374, 403, 426, 428, 430, 447, 448, 502, 504, 506, एवं 510 के तहत किए गए अपराधों के लिए केस को सुनने एवं निर्णय देने के अधिकारिता होगी। ये धराएं मुख्यत: विधि के विरूध्द जमाव से विखर जाने के आदेश दिए जाने के बाद भी उसमें बंधे रहने, बलवा करने के लिए उकसाना, दंगा करने के लिए उकसाना एवं दंगा करना, सम्मन की तामिल से फरार हो जाना, लोक सेवक का आदेश न मानकर गैर हाजिर रहना, शपथ से इनकार करना, लोक सेवक को उत्तर देने से इनकार करना, उपेक्षपूर्ण कार्य करना, जिससे संकट पूर्ण रोग का संक्रमण संभव हो, जलाशय को कलुषित करना, लोगो मार्गमें बाधा पहुँचाना, अग्नि के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण, आचरण, विस्फोटक पदार्थ के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण, जीव-जन्तु के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण, लोक न्यूसेन्स करना, अश्लील कार्य एवं गाने गाना एवं लौटरी कार्यालय रखना, किसी को चोट पहुँचाना, स्वेच्छापूर्वक किसी को किसी के प्रकोप पर चोट पहुँचाना, वैसा कार्य करना जिससे दूसरे को संकट हो, किसी को अवरोधित करना, अपराधिक बल काप्रयोग करना, किसी व्यक्ति का गलत ढंग़ से रोक रखने में आपराधिक बल का प्रयोग करना, मिसचिफ कराना, सम्पत्तिा करना (रिष्टि), जीव-जन्तु का वध करना, जल को क्षति करना, आपराधिक अतिचार कना, गृह अतिचार करना, मानहानि कारक समान रखना या बेचना, लोक शान्ति भंग करना, आपराधिक अभित्रास करना, लोक स्थान में शराब पीना से संबंधित है। इसके अलावे पशु अतिचार अधिनियम एवं लोक धूत अधिनियम से संबंधित मामले को भी सुनने का अधिकार ग्राम कचहरी को दिया गया है।

अधिवक्ता प्रवीण जैन रायपुर
9406133701, www.praveenjain.in

भारतीय कानून में महिलाओं को मिलें है विशेष अधिकार जाने उनमें से प्रमुख अधिकारों कौन से हैं।

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प्रवीण जैन अधिवक्ता रायपुर
9406133701

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१. शादीशुदा या अविवाहित स्त्रियाँ अपने साथ हो रहे अन्याय व प्रताड़ना को घरेलू हिंसा कानून के अंतर्गत दर्ज कराकर उसी घर में रहने का अधिकार पा सकती हैं जिसमे वे रह रही हैं|

२. यदि किसी महिला की इच्छा के विरूद्ध उसके पैसे, शेयर्स या बैंक अकाउंट का इस्तेमाल किया जा रहा हो तो इस कानून का इस्तेमाल करके वह इसे रोक सकती है|

३. इस कानून के अंतर्गत घर का बंटवारा कर महिला को उसी घर में रहने का अधिकार मिल जाता है और उसे प्रताड़ित करने वालों को उससे बात तक करने की इजाजत नहीं दी जाती|

४. विवाहित होने की स्थिति में अपने बच्चे की कस्टडी और मानसिक/शारीरिक प्रताड़ना का मुआवजा मांगने का भी उसे अधिकार है|

५. घरेलू हिंसा में महिलाएं खुद पर हो रहे अत्याचार के लिए सीधे न्यायालय से गुहार लगा सकती है, इसके लिए वकील को लेकर जाना जरुरी नहीं है| अपनी समस्या के निदान के लिए पीड़ित महिला- वकील प्रोटेक्शन ऑफिसर और सर्विस प्रोवाइडर में से किसी एक को साथ ले जा सकती है और चाहे तो खुद ही अपना पक्ष रख सकती है|

६. भारतीय दंड संहिता ४९८ के तहत किसी भी शादीशुदा महिला को दहेज़ के लिए प्रताड़ित करना कानूनन अपराध है| अब दोषी को सजा के लिए कोर्ट में लाने या सजा पाने की अवधि बढाकर आजीवन कर दी गई है|

७. हिन्दू विवाह अधिनियम १९९५ के तहत निम्न परिस्थितियों में कोई भी पत्नी अपने पति से तलाक ले सकती है- पहली पत्नी होने के वावजूद पति द्वारा दूसरी शादी करने पर, पति के सात साल तक लापता होने पर, परिणय संबंधों में संतुष्ट न कर पाने पर, मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने पर, धर्म परिवर्तन करने पर, पति को गंभीर या लाइलाज बीमारी होने पर, यदि पति ने पत्नी को त्याग दिया हो और उन्हें अलग रहते हुए एक वर्ष से अधिक समय हो चुका हो तो|

८. यदि पति बच्चे की कस्टडी पाने के लिए कोर्ट में पत्नी से पहले याचिका दायर कर दे, तब भी महिला को बच

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11|भारतीय कानून के अनुसार, गर्भपात कराना अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन गर्भ की वजह से यदि किसी महिला के स्वास्थ्य को खतरा हो तो वह गर्भपात करा सकती है | ऐसी स्तिथि में उसका गर्भपात वैध माना जायेगा | साथ ही कोई व्यक्ति महिला की सहमति के बिना उसे गर्भपात के लिए बाध्य नहीं कर सकता | यदि वह ऐसा करता है तो महिला कानूनी दावा कर सकती है |

12। तलाक की याचिका पर शादीशुदा स्त्री हिन्दू मैरेज एक्ट के सेक्शन 24 के तहत गुजाराभत्ता ले सकती है | तलाक लेने के निर्णय के बाद सेक्शन 25 के तहत परमानेंट एलिमनी लेने का भी प्रावधान है | विधवा महिलाएं यदि दूसरी शादी नहीं करती हैं तो वे अपने ससुर से मेंटेनेंस पाने का अधिकार रखती हैं | इतना ही नहीं, यदि पत्नी को दी गई रकम कम लगती है तो वह पति को अधिक खर्च देने के लिए बाध्य भी कर सकती है | गुजारेभत्ते का प्रावधान एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस एक्ट में भी है |

13। सीआर। पी। सी। के सेक्शन 125 के अंतर्गत पत्नी को मेंटेनेंस, जो कि भरण-पोषण के लिए आवश्यक है, का अधिकार मिला है | यहाँ पर यह जान लेना जरुरी होगा कि जिस तरह से हिन्दू महिलाओं को ये तमाम अधिकार मिले हैं, उसी तरह या उसके समकक्ष या सामानांतर अधिकार अन्य महिलाओं [जो कि हिन्दू नहीं हैं] को भी उनके पर्सनल लॉ में उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग वे कर सकती हैं | लिव इन रिलेशनशिप से जुड़े अधिकार

14। लिव इन रिलेशनशिप में महिला पार्टनर को वही दर्जा प्राप्त है, जो किसी विवाहिता को मिलता है |

15। लिव इन रिलेशनशिप संबंधों के दौरान यदि पार्टनर अपनी जीवनसाथी को मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना दे तो पीड़ित महिला घरेलू हिंसा कानून की सहायता ले सकती है |

16। लिव इन रिलेशनशिप से पैदा हुई संतान वैध मानी जाएगी और उसे भी संपत्ति में हिस्सा पाने का अधिकार होगा |
17। पत्नी के जीवित रहते हुए यदि कोई पुरुष दूसरी महिला से लिव इन रिलेशनशिप रख��
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21। यदि महिला विवाहित है तो पति की सहमति के बाद ही बच्चा गोद ले सकती है |

22। दाखिले के लिए स्कूल के फॉर्म में पिता का नाम लिखना अब अनिवार्य नहीं है | बच्चे की माँ या पिता में से किसी भी एक अभिभावक का नाम लिखना ही पर्याप्त है | जमीन जायदाद से जुड़े अधिकार

23। विवाहित या अविवाहित, महिलाओं को अपने पिता की सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा पाने का हक है | इसके अलावा विधवा बहू अपने ससुर से गुजराभात्ता व संपत्ति में हिस्सा पाने की भी हकदार है |

24। हिन्दू मैरेज एक्ट 1 9 55 के सेक्शन 27 के तहत पति और पत्नी दोनों की जितनी भी संपत्ति है, उसके बंटवारे की भी मांग पत्नी कर सकती है | इसके अलावा पत्नी के अपने ‘स्त्री-धन’ पर भी उसका पूरा अधिकार रहता है |

25। 1 9 54 के हिन्दू मैरेज एक्ट में महिलायें संपत्ति में बंटवारे की मांग नहीं कर सकती थीं, लेकिन अब कोपार्सेनरी राइट के तहत उन्हें अपने दादाजी या अपने पुरखों द्वारा अर्जित संपत्ति में से भी अपना हिस्सा पाने का पूरा अधिकार है | यह कानून सभी राज्यों में लागू हो चुका है | कामकाजी महिलाओं के अधिकार

26। इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट रूल- 5, शेड्यूल -5 के तहत यौन संपर्क के प्रस्ताव को न मानने के कारण कर्मचारी को काम से निकालने व एनी लाभों से वंचित करने पर कार्रवाई का प्रावधान है |

27। समान काम के लिए महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन पाने का अधिकार है |

28। धारा 66 के अनुसार, सूर्योदय से पहले [सुबह 6 बजे] और सूर्यास्त के बाद [शाम 7 बजे के बाद] काम करने के लिए महिलाओं को बाध्य नहीं किया जा सकता |

2 9। भले ही उन्हें ओवरटाइम दिया जाए, लेकिन कोई महिला यदि शाम 7 बजे के बाद ऑफिस में न रुकना चाहे तो उसे रुकने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता |

30। ऑफिस में होने वाले उत्पीड़न के खिलाफ महिलायें शिकायत दर्ज करा सकती हैं |
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31। प्रसूति सुविधा अधिनियम 1 9 61 के तहत, प्रसव के बाद महिलाओं को तीन माह की वैतनिक [सैलरी के साथ] मेटर्निटीलीव दी जाती है | इसके बाद भी वे चाहें तो तीन माह तक अवैतनिक [बिना सैलरी लिए] मेटर्निटी लीव ले सकती हैं |

32। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1 9 56 के तहत, विधवा अपने मृत पति की संपत्ति में अपने हिस्से की पूर्ण मालकिन होती है | पुनः विवाह कर लेने के बाद भी उसका यह अधिकार बना रहता है |

33। यदि पत्नी पति के साथ न रहे तो भी उसका दाम्पत्य अधिकार कायम रहता है | यदि पति-पत्नी साथ नहीं भी रहते हैं या विवाहोत्तर सेक्स नहीं हुआ है तो दाम्पत्य अधिकार के प्रत्यास्थापन [रेस्टीट्यूशन ऑफ़ कॉन्जुगल राइट्स] की डिक्री पास की जा सकती है |

34। यदि पत्नी एचआईवी ग्रस्त है तो उसे अधिकार है कि पति उसकी देखभाल करे |

35। बलात्कार की शिकार महिला अपने सेक्सुअल बिहेवियरमें प्रोसिंक्टअस [Procinctus] तो भी उसे यह अधिकार है कि वह किसी के साथ और सबके साथ सेक्स सम्बन्ध से इनकार कर सकती है, क्योंकि वह किसी के या सबके द्वारा सेक्सुअल असॉल्ट के लिए असुरक्षित चीज या शिकार नहीं है |

36। अन्य समुदायों की महिलाओं की तरह मुस्लिम महिला भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजाराभत्ता पाने की हक़दार है | मुस्लिम महिला अपने तलाकशुदा पति से तब तक गुजाराभत्ता पाने की हक़दार है जब तक कि वह दूसरी शादी नहीं कर लेती है | [शाह बानो केस]

37। हाल ही में बोम्बे हाई कोर्ट द्वारा एक केस में एक महत्वपूर्ण फैसला लिया गया कि दूसरी पत्नी को उसके पति द्वारा दोबारा विवाह के अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि यह बात नहीं कल्पित की जा सकती कि उसे अपने पति के पहले विवाह के बारे में जानकारी थी | अधिकार से जुड़े कुछ मुद्दे ऐसे भी

38। मासूम बच्चियों के साथ बढ़ते बलात्कार के मामले को गंभीरता से लेते हुए हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने जनह��
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41। यदि कोई व्यक्ति सक्षम होने के बावजूद अपनी माँ, जो स्वतः अपना पोषण नहीं कर सकती, का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी नहीं लेता तो कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर सेक्शन 125 के तहत कोर्ट उसे माँ के पोषण के लिए पर्याप्त रकम देने का आदेश देता है |

42। हाल में सरकार द्वारा लिए गए एक निर्णय के अनुसार अकेली रहने वाली महिला को खुद के नाम पर राशन कार्ड बनवाने का अधिकार है |

43। लड़कियों को ग्रेजुएशन तक फ्री-एजुकेशन पाने का अधिकार है |

44। यदि अभिभावक अपनी नाबालिग बेटी की शादी कर देते हैं तो वह लड़की बालिग होने पर दोबारा शादी कर सकती है, क्योंकि कानूनी तौर पर नाबालिग विवाह मान्य नहीं होती है | पुलिस स्टेशन से जुड़े विशेष अधिकार

45। आपके साथ हुआ अपराध या आपकी शिकायत गंभीर प्रकृति की है तो पुलिस एफआईआर यानी फर्स्ट इनफार्मेशन रिपोर्ट दर्ज करती है |

46। यदि पुलिस एफआईआर दर्ज करती है तो एफआईआर की कॉपी देना पुलिस का कर्तव्य है |

47। सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद किसी भी तरह की पूछताछ के लिए किसी भी महिला को पुलिस स्टेशन में नहीं रोका जा सकता |

48। पुलिस स्टेशन में किसी भी महिला से पूछताछ करने या उसकी तलाशी के दौरान महिला कॉन्सटेबल का होना जरुरी है |

4 9। महिला अपराधी की डॉक्टरी जाँच महिला डॉक्टर करेगी या महिला डॉक्टर की उपस्थिति के दौरान कोई पुरुष डॉक्टर |

50। किसी भी महिला गवाह को पूछताछ के लिए पुलिस स्टेशन आने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता | जरुरत पड़ने पर उससे पूछताछ के लिए पुलिस को ही उसके घर जाना होगा |

प्रवीण जैन अधिवक्ता रायपुर
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चेक बाउंस होने पर जानिए कैसे करें शिकायत…

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हमारे देश में चेक बाउंस होना आम घटना माना जाता है। शायद, इसी कारण अदालतों में चेक बाउंस के लाखों मामले लंबित हैं। इनमें से ज्यादातर मामले एकाउंट में पैसा नहीं होने के कारण दर्ज हुए हैं। हालांकि, चेक सिर्फ एकाउंट में पैसे नहीं होने के कारण बाउंस नहीं होते है। इसके और भी कई कारण हो सकते हैं जैसे चेक पर किए हुए हस्ताक्षर का बैंक खाते से मेल न खाना, तीन महीने से पुराना चेक आदि। भारत सरकार के निगोशिएबल इंस्‍ट्रूमेंट एक्ट 1881 के अनुसार चेक बाउंस होने पर डिफॉल्टर को जुर्माना और जेल भेजने का प्रावधान है।

पिछले वर्ष अगस्‍त में सुप्रीम कोर्ट ने निगोशिएबल इंस्‍ट्रूमेंट एक्‍ट के सेक्‍शन 138 के मूल नियम में बदलाव करते हुए कहा था कि चेक बाउंस के मामले वहीं दर्ज किए जाने चाहिए जहां चेक भुनाने वाले बैंक का ब्रांच है।

इसका मतलब हुआ कि अगर कोई दिल्‍ली का व्‍यक्ति भोपाल में कुछ खरीदारी करता है और उसका भुगतान चेक के जरिए करता है, तो चेक बाउंस होने के मामले में उसे दिल्‍ली आकर सेक्‍शन 138 के तहत प्रोसेक्‍यूशन शुरू करना होगा।

चेक बाउंस होने पर कानूनी प्रावधान
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प्राय: सभी बैंक चेक बाउंस होने पर रिटर्न मेमो देता हैं। मेमो में चेक क्‍यों बाउंस हुआ उसका ब्योरा दिया होता है। चेक मिलने और बाउंस होने पर आप उस चेक को होल्ड कर सकते हैं। इसकी सूचना चेक जारी करने वाले को देनी होती है। फिर उस चेक को आप जारी करने के तीन महीने के भीतर बैंक में जमा करवा सकते हैं। यदि दूसरी बार भी कम पैसों के कारण चेक बाउंस होता है तो आप निर्गत करने वाले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं। चेक बाउंस होने के 30 दिनों के अंदर डिफॉल्टर के पास कानूनी नोटिस भेज सकते हैं। इस नोटिस में चेक क्‍यों बाउंस हुआ इसका पूरा ब्योरा देना होता है। डिफॉल्टर को नोटिस मिलने के बाद 15 दिनों के अंदर बैंक एकाउंट में पैसा डालना होता है। यदि डिफॉल्टर नोटिस मिलने के 15 दिनों के बाद भी एकाउंट में पैसा जमा नहीं करता है तो आप मजिस्ट्रेट कोर्ट में उसके खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं। मजिस्ट्रेट कोर्ट में शिकायत 1 महीने के भीतर करना होता है। मजिस्ट्रेट कोर्ट शिकायत समय-सीमा के अंदर ही दर्ज कराएं। समय सीमा के बाद शिकायत दर्ज कराने पर सुनवाई नहीं होती है। कोर्ट डिफॉल्टर को दो साल की सजा या चेक की रकम के तीन गुना की पेनाल्टी लगा सकता है। हालांकि, मजिस्ट्रेट कोर्ट के फैसले मिलने के एक महीने के भीतर डिफॉल्टर ऊपरी अदालत में अपील कर सकता है।

किराए का चेक बाउंस होने का मामला

मकान मालिक को किरायेदार की ओर से मिला चेक बाउंस होना आम है। इनमें से ज्‍यादातर चेक बाउंस अकाउंट में पैसा नहीं होने के कारण होते हैं या मकान मालिक की ओर से समय पर चेक कैश नहीं कराने के कारण भी होता है। यदि किरायेदार से मिला चेक बाउंस होता है तो मकान मालिक को इसकी जानकारी किरायेदार को देनी होगी। यदि किरायेदार कोई पहल नहीं करता है तो मकान मालिक कानूनी कार्रवाई शुरू कर सकता है। कई मामले में किरायेदार घर के मेंटिनेंस का खर्च किराये से एडजस्ट कराना चाहता है और किराया देने से मना करता है। यदि ऐसे में चेक बाउंस हुआ है तो किरायेदार पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है।

लोन की ईएमआई का चेक बाउंस होने पर

ईएमआई का चेक बाउंस होने पर बैंक चेक जारी करने वाले व्‍यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकता है। हालांकि, बैंक एक ईएमआई का चेक बाउंस होने पर ऐसा नहीं कर सकता है। सबसे पहले भारी पेनाल्‍टी लगाई जाती है, उसके बाद लोन डिफॉल्ट चार्ज और चेक बाउंस चार्ज लगाया जाता है। इससे प्रत्येक महीने डिफॉल्ट की राशि बढ़ती जाती है और यह मासिक किस्तों में जुड़ता जाता है। इससे डिफॉल्टर का क्रेडिट रेटिंग भी खराब होता है। यदि बैंक के द्वारा बार-बार नोटिस भेजने के बाद भी डिफॉल्टर बकाया का भुगतान नहीं करता है तो बैंक उसके प्रॉपर्टी को नीलाम कर सकता है।

बिजनेस लेन-देन का चेक बाउंस होने पर

यदि आप एक कारोबारी है और किसी दूसरे कारोबारी का दिया हुआ चेक बाउंस हो जाता है तो भी आप शिकायत दर्ज करा सकते हैं। हालांकि, इससे कारोबारी की साख गिरती है और नए बिजनेस डील करने में समस्या आती हैं। बिजनेस चेक बाउंस होने पर सरकार नए कानून लाने की तैयारी में है। इसमें डिफॉल्टर को जेल नहीं भेज कर लोक अदालत भेजने का प्रावधान हो सकता है।

प्रवीण जैन अधिवक्ता 9406133701
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धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:- ’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था।  इस संबंध मं न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। 2. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-         उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है। 3. धारा 138 के संबध् में:-         न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।         इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि  ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।       4.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।         उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ। 5. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-         ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया ।  उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।

प्रवीण जैन अधिवक्ता
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क्या है दहेज प्रतिबंध अधिनियम, जागरूक समाज मे दहेज प्रथा पर रोक आवश्यक…

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Adv. Praveen Jain 9406133701
dahej

यह अधिनियम विवाह के समय,दोनों पक्षों पर,दहेज देने या लेने की प्रथा पर रोक लगाताहैlयह क़ानूनदहेज की माँग करने और विज्ञापन देने पर भी दण्डित करता हैl

·दहेज से जुड़े गंभीर अपराध जैसे दहेज-मृत्यु [304B, IPC]और दहेज से जुड़ी क्रूरता[498A, IPC]भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय हैंl

·यह क़ानून विवाह पक्षों को उपहारों की एक सूची बनाने के लिए कर्तव्यबद्ध करता हैl

·इसके बावजूदभी यदि किसी शादी में दहेज का आदान प्रदान हुआ है, तो यह क़ानून आदेश देता है कि जिस व्यक्ति को दहेज मिला है, उसे वह वधू को देना होगा I

उदहारण :

दहेज प्रथा निषेध अधिनियम-यह कानून दहेज लेने और दहेज देने दोनों ही चिज़ों को रोकने के लिए बनाया गया है।और साथ ही साथ दहेज लेना और दहेज देना ये दोनों ही इस कानून के तहत अपराध है।यदि कोई व्यक्ति जो दहेज देता है या फिर दहेज की मांग करता है या दहेज लेता है वो इस कानून के तहत अपराध करता है।

क्या शादी के समय उपहार देना भी जुर्म है?

·शादी में वर/वधू पक्ष द्वारा तोहफे या उपहार देना दंडनीय नहीं है, यदि यह स्वेच्छा से किया गया हो \|

·नियमों के अनुसार उपहारों को एक सूची में दर्ज़ किया जाना चाहिए(दहेज निषेध नियमावली के नियम २ के अनुसार )\|

·वधू पक्ष की ओर से उपहार, रिवाज़ और व्यक्ति की वित्तीय क्षमता को ध्यान में रख कर दिया जाना चाहिए \|

क्या दहेज लेने या देने के लिए किया गया समझौता वैध है?

नहीं, ऐसा कोई भी समझौता जिसमें दहेज के आदान-प्रदान की बात की गई हो वह अवैध है l यदि सीतापति दहेज देने से इनकार करता है तो राजा भोज इसके खिलाफ शिकायत नहीं कर सकते भले ही उनका इस बारे में पहले कोई समझौता हुआ हो l क़ानून इस प्रकार के समझौतों को अवैध करार देता है l

शादी के समय दिया गया दहेज किसे मिलना चाहिए?

यदि शादी के दौरान या उसके पश्चात दहेज का आदान-प्रदान हुआ है तो इस क़ानून के तहत, जिसने दहेज लिया है, उसे वह संपत्ति वधू को देनी होगी l

उदाहरण:

२० अगस्त को राज और सिमरन की शादी हुई, सिमरन के पिता ने दहेज के रूप में एक गाड़ी राज के चाचा अमन को भेंट कीl अमन को वह गाड़ी सिमरन को देनी होगी l यदि संपत्ति को शादी होने से पहले स्वीकार किया गया है तो शादी से तीन महीने पूरे होने तक(२० नवंबर तक) अमन को वह संपत्ति सिमरन को देनी होगी l

-यदि सम्पति का आदान-प्रदान शादी के दिन या उसके पश्चात हुआ है, तो वह संपत्ति सिमरन को देने के लिए अमन के पास तीन महीने तक का समय है (उस दिन से जिस दिन अमन ने संपत्ति को स्वीकार किया था) l

-यदि शादी के समय सिमरन की आयु १८ वर्ष से कम है, तो सिमरन के बालिग होने के तीन महीने के अन्दर अमन को वह गाड़ी सिमरन को देनी होगी, तब तक अमन उसकी देख-रेख कर सकता है l

वधू को दहेज न सौंपने की क्या सज़ा तय की गयी है?

यदि तय समय सीमा के अन्दर अमन गाड़ी सिमरन के हवाले नहीं करता है तो उसे ६ महीने से ले कर २ साल तक के लिए जेल भेजा जा सकता है, साथ ही 5000-10000 रूपए का जुर्माना भी देना पड़ सकता है l

-यदि किसी कारणवश अमन के गाड़ी सौंपने से पहले सिमरन की मृत्यु हो जाती है तो सिमरन के उत्तराधिकारी अमन से वह गाड़ी ले सकते हैं l

-यदि शादी के सात साल के अन्दर, अप्राकृतिक कारणों की वजह से सिमरन की मृत्यु हो जाती है तो वह सम्पति उसके बच्चों को स्थानांतरित कर दी जाएगी l यदि सिमरन की कोई औलाद नहीं है तो उसके माता-पिता उस संपत्ति के हक़दार होंगे l

-यदि इन सब मौकों के बाद भी अमन सिमरन को गाड़ी नहीं सौंपता है, और उसके खिलाफ़ केस किये जाने पर वह दोषी पाया जाता है, और यह कार्यवाही होने के बावजूद यदि अमन ने वह गाड़ी सिमरन के बच्चों/माता-पिता को नहीं लौटाई, तो अदालत अमन को निश्चित समय सीमा में वह गाड़ी लौटाने का आदेश देगी l यदि वह फिर भी वह गाड़ी लौटाने में असफ़ल होता है तो अदालत वह राशि जुर्माने के तौर पर वसूल करेगी l

GW298H213

दहेज के मामलों पर किन अदालतों में सुनवाई हो सकती है?

इस कानून के तहत दहेज के अपराध के मामलों का विचारण निम्नलिखित न्यायालयों में हो सकता है:-

-महानगर मजिस्ट्रेट (अधिक जनसँख्या वाले शहरी क्षेत्र)

-प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट

-कोई उच्च न्यायलय (जैसे कि सेशन न्यायालय)

इस कानून बे बारे मैं अधिक जानकारी के लिए यह सरल स्पष्टीकरण पढ़ें

धारा 2

दहेज का मतलब है कोई सम्पति या बहुमूल्य प्रतिभूति देना या देने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप सेः

(क) विवाह के एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को; या(ख) विवाह के किसी पक्षकार के

अविभावक या दूसरे व्यक्ति द्वारा विवाह के किसी पक्षकार को विवाह के समय या पहले या बाद देने या देने के लिए सहमत होना। लेकिन जिन पर मुस्लिम विधि लागू होती है उनके संबंध में महर दहेज में शामिल नहीं होगा।

धारा-3

दहेज लेने या देने का अपराध करने वाले को कम से कम पाँच वर्ष के कारावास साथ में कम से कम पन्द्रह हजार रूपये या उतनी राशि जितनी कीमत उपहार की हो, इनमें से जो भी ज्यादा हो, के जुर्माने की सजा दी जा सकती है।

लेकिन शादी के समय वर या वधू को जो उपहार दिया जाएगा और उसे नियमानुसार सूची में अंकित किया जाएगा वह दहेज की परिभाषा से बाहर होगा।

धारा 4

दहेज की मांग के लिए जुर्माना-

यदि किसी पक्षकार के माता पिता, अभिभावक या रिश्तेदार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दहेज की मांग करते हैं तो उन्हें कम से कम छः मास और अधिकतम दो वर्षों के कारावास की सजा और दस हजार रूपये तक जुर्माना हो सकता है।

धारा 4ए

किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रकाशन या मिडिया के माध्यम से पुत्र-पुत्री के शादी के एवज में व्यवसाय या सम्पत्ति या हिस्से का कोई प्रस्ताव भी दहेज की श्रेणी में आता है और उसे भी कम से कम छह मास और अधिकतम पाँच वर्ष के कारावास की सजा तथा प्रन्द्रह हजार रूपये तक जुर्माना हो सकता है।

धारा 6

यदि कोई दहेज विवाहिता के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति द्वारा धारण किया जाता है तो दहेज प्राप्त करने के तीन माह के भीतर या औरत के नाबालिग होने की स्थिति में उसके बालिग होने के एक वर्ष के भीतर उसे अंतरित कर देगा। यदि महिला की मृत्यु हो गयी हो और संतान नहीं हो तो अविभावक को दहेज अन्तरण किया जाएगा और यदि संतान है तो संतान को अन्तरण किया जाएगा।

धारा 8ए

यदि घटना से एक वर्ष के अन्दर शिकायत की गयी हो तो न्यायालय पुलिस रिपोर्ट या क्षुब्ध द्वारा शिकायत किये जाने पर अपराध का संज्ञान ले सकेगा।

धारा 8बी

दहेज निषेध पदाधिकारी की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाएगी जो बनाये गये नियमों का अनुपालन कराने या दहेज की मांग के लिए उकसाने या लेने से रोकने या अपराध कारित करने से संबंधित साक्ष्य जुटाने का कार्य करेगा

प्रवीण जैन अधिवक्ता रायपुर
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धारा 498-क में वर्णित अपराध के संज्ञेय और गैर जमानती होने के कारण असंतुष्ट पत्नियां इसे अपने कवच की बजाय अपने पतियों के विरुद्ध हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं।

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हमारी बहन-बेटियों को दहेज उत्पीड़न के सामाजिक अभिशाप से कानूनी तरीके से  बचाने और दहेज उत्पीड़कों को कठोर सजा दिलाने के मकसद से संसद द्वारा सम्बंधित कानूनी प्रावधानों में संशोधनों  के साथ भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498-ए जोड़ी गयी थी। मगर किसी भी इकतरफा कठोर कानून की भांति इस  कानून का भी प्रारम्भ से ही दुरुपयोग शुरू हो गया। जिसको लेकर कानूनविदों में लगातार विवाद रहा है और इस धारा  को समाप्त या संशोधित करने की लगातार मांग की जाती रही है। इस धारा के दुरुपयोग के सम्बन्ध में समय-समय  पर अनेक प्रकार की गम्भीर टिप्पणियॉं और विचार सामने आते रहे हैं। जिनमें से कुछ यहॉं प्रस्तुत हैं :-

 1. 19 जुलाई, 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए को कानूनी आतंकवाद की  संज्ञा दी।
2. 11 जून, 2010 सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के सम्बन्ध में कहा कि पतियों को  अपनी स्वतंत्रता को भूल जाना चाहिये।
3. 14 अगस्त, 2010 सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए में संशोधन  करने के लिए कहा।
4. 04 फरवरी, 2010 पंजाब के अम्बाला कोर्ट ने स्वीकार कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के  प्रावधानों का दुरूपयोग हो रहा है।
5. 16 अप्रेल, 2010 बॉम्बे हाई कोर्ट ने और 22 अगस्त, 2010 को बैंगलौर हाई कोर्ट ने भी भारतीय दण्ड  संहिता की धारा 498-ए के दुरूपयोग की बात को स्वीकारा।
6. केवल यही नहीं, बल्कि 22 अगस्त, 2010 को केन्दीय सरकार ने सभी प्रदेश सरकारों की पुलिस को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के प्रावधानों के दुरुपयोग के बारे में चेतावनी दी।
7. विधि आयोग ने अपनी 154 वीं रिपोर्ट में इस बात को साफ शब्दों में स्वीकारा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-ए के प्रावधानों का दुरुपयोग हो रहा है।
8. नवम्बर, 2012 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश द्वय टीएस ठाकुर और ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने कहा कि धारा 498-ए के आरोप में केवल एफआईआर में नाम लिखवा देने मात्र के आधार पर ही पति-पक्ष के लोगों के विरुद्ध धारा-498-ए के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये।

उपरोक्त गंभीर विचारों के होते हुए भी धारा 498-ए भारतीय दंड संहिता में कायम है इसका दुरुपयोग भी लगातार जारी रहा है। जिसको लेकर देश की सर्वोच्च अदालत अर्थात् सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार 02 जुलाई, 2014 को एक बार फिर से अनेक गम्भीर मानी जा रही टिप्पणियों के साथ अपना निर्णय सुनाया है। न्यायमूर्ति चंद्रमौलि कुमार प्रसाद की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अपने निर्णय में मूल रूप से निम्न बातें कही हैं:-

1. दहेज उत्पीड़न विरोधी धारा 498-ए का पत्नियों द्वारा जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है।
2. धारा 498-क में वर्णित अपराध के संज्ञेय और गैर जमानती होने के कारण असंतुष्ट पत्नियां इसे अपने कवच की बजाय अपने पतियों के विरुद्ध हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं।
3. धारा 498-क के तहत गिरफ्तारी व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने के साथ-साथ, गिरफ्तार व्यक्ति को अपमानित भी करती है और हमेशा के लिए उस पर धब्बा लगाती है।
4. धारा 498-ए वर पक्ष के लोगों को परेशान करने का सबसे आसान तरीका है। पति और उसके रिश्तेदारों को इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार कराना बहुत आसान है। अनेक मामलों में पति के अशक्त दादा-दादी, विदेश में दशकों से रहने वाली उनकी बहनों तक को भी गिरफ्तार किया गया है।
5. धारा 498-ए के इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार व्यक्तियों में से करीब एक चौथाई पतियों की मां और बहन जैसी महिलायें होती हैं, जिन्हें गिरफ्तारी के जाल में लिया जाता है।
6. धारा 498-ए के मामलों में आरोप पत्र दाखिल करने की दर 93.6 फीसदी तक है, जबकि सजा दिलाने की दर सिर्फ 15 फीसदी है।
7. हाल के दिनों में वैवाहिक विवादों में इजाफा हुआ है। जिससे शादी जैसी संस्था प्रभावित हो रही है।

उपरोक्त कारणों से सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि धारा 498-ए के दुरुपयोग को रोकने के लिये हम सभी राज्य सरकारों को निम्न निर्देश देते हैं :-

(सुप्रीम कोर्ट के प्रत्येक निर्देश के सम्बन्ध में इस आलेख के लेखक द्वारा टिप्पणियॉं भी दी गयी हैं।)

1. देश में पुलिस अभी तक ब्रितानी सोच से बाहर नहीं निकली है और गिरफ्तार करने का अधिकार बेहद आकर्षक है। पहले गिरफ्तारी और फिर बाकी कार्यवाही करने का रवैया निन्दनीय है, जिस पर अंकुश लगाना चाहिए। पुलिस अधिकारी के पास तुरंत गिरफ्तारी की शक्ति को भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत है।
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लेखक की टिप्पणी : अर्थात् सुप्रीम कोर्ट मानता है कि हमारी पुलिस न तो न्यायप्रिय है और न हीं निष्पक्ष है, बल्कि इसके साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि में पुलिस भ्रष्ट भी है। इसके उपरान्त भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा केवल पुलिस के इस चरित्र की निन्दा करके ही मामले को समाप्त कर दिया गया। पुलिस के चरित्र में सुधार के लिये किसी प्रकार की पुख्ता निगरानी व्यवस्था कायम करने या अन्य किसी भी प्रकार के सुधारात्मक आदेश नहीं दिये गये। जबकि न मात्र धारा 498-ए के सन्दर्भ में बल्कि हर एक मामले पुलिस का न्यायप्रिय तथा निष्पक्ष नहीं होना और साथ ही भ्रष्ट होना आम व्यक्ति के लिए न्याय प्राप्ति में सबसे बड़ी और खतरनाक बाधा है। मगर सुप्रीम कोर्ट कम से कम इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से मौन रहा है।

2. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में आगे निर्देश देते हुए कहा है कि सभी राज्य सरकारें अपने-अपने पुलिस अधिकारियों को हिदायत दें कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498-क के तहत मामला दर्ज होने पर स्वत: ही गिरफ्तारी नहीं करें, बल्कि पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में प्रदत्त मापदंडों के तहत गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे में खुद को संतुष्ट करें।

लेखक की टिप्पणी : अर्थात् जिस पुलिस को खुद सुप्रीम कोर्ट एक ओर भ्रष्ट मानता है, उसी पुलिस को खुद को ही इस बात की निगरानी रखनी है कि पुलिस के द्वारा कानूनी प्रावधानों का सही से प्रयोग किया जा रहा है या नहीं! क्या यह संभव है?

3. किसी व्यक्ति के खिलाफ पत्नियों द्वारा अपराध करने का आरोप लगाने के आधार पर ही फौरी तौर पर कोई गिरफ्तारी नहीं की जानी चाहिए। दूरदर्शी और बुद्धिमान पुलिस अधिकारी के लिए उचित होगा कि आरोपों की सच्चाई की थोड़ी बहुत जांच के बाद उचित तरीके से संतुष्ट हुए बगैर कोई गिरफ्तारी नहीं की जाये।

लेखक की टिप्पणी : अर्थात् यहॉं पर भी सुप्रीम कोर्ट की नजर में दूरदर्शी और बुद्धिमान पुलिस को ही स्वयं पर निगरानी रखनी है। सुप्रीम कोर्ट को किसी बाहरी ऐजेंसी से निगरानी करवाने की जरूरत प्रतीत नहीं होती है।

4. पुलिस स्वत: ही आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती और उसे गिरफ्तार करने की वजह बतानी होगी और ऐसी वजहों की न्यायिक समीक्षा की जायेगी। पुलिस अधिकारी को गिरफ्तार करने की जरूरत के बारे में मजिस्ट्रेट के समक्ष कारण और सामग्री पेश करनी होगी। क्योंकि पतियों को गिरफ्तार करने का कानूनी अधिकार एक बात है और इसके इस्तेमाल को पुलिस द्वारा न्यायोचित ठहराना दूसरी बात है। गिरफ्तार करने के अधिकार के साथ ही पुलिस अधिकारी ऐसा करने को कारणों के साथ न्यायोचित ठहराने योग्य होना चाहिए।

लेखक की टिप्पणी : अर्थात् यहॉं पर सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश के बारे में दो बातें गौर करने वाली हैं। प्रथम तो आदेश में ये साफ नहीं है कि धारा 498-ए के तहत मुकदमा दर्ज होने के बाद आरोपियों को गिरफ्तार करने से पूर्व मजिस्ट्रेट के समक्ष गिरफ्तारी के आधारों को पुलिस की ओर से सिद्ध करना होगा या गिरफ्तारी के बाद में मजिस्ट्रेट के पूछने पर सिद्ध करना होगा। दूसरे जिन मजिस्ट्रटों की अदालत से राष्ट्रपति तक के खिलाफ आसानी से गिरफ्तारी वारण्ट जारी करवाये जा सकते हैं और जो अदालतें मुकदमों के भार से इस कदर दबी बड़ी हैं कि उनके पास वर्षों तक तारीख बदलने के अलावा लोगों की सुनवाई करने का समय नहीं है, उन अदालतों से ये अपेक्षा किया जाना कि पुलिस ने गिरफ्तारी करने से पूर्व अपनी अन्वेषण डायरी में जो कारण लिखें हैं, वे कितने न्यायोचित या सही या उचित हैं, इसकी पड़ताल किये जाने की अपेक्षा किया जाना कहॉं तक व्यावहारिक होगा?

5. जिन किन्हीं मामलों में 7 साल तक की सजा हो सकती है, उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस कयास के आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने वह अपराध किया होगा। गिरफ्तारी तभी की जाए, जब इस बात के पर्याप्त सबूत हों कि आरोपी के आजाद रहने से मामले की जांच प्रभावित हो सकती है, वह कोई और क्राइम कर सकता है या फरार हो सकता है।

लेखक की टिप्पणी : अर्थात् सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी उक्त आदेश को पूर्व में भी अनेकों बार दोहराया जाता रहा है, लेकिन पुलिस द्वारा लगातार और बिना किसी प्रकार की परवाह किये इस प्रावधान का और सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हर दिन उल्लंघन किया जाता रहा है। जिसका मूल कारण है, इस कानून का उल्लंघन करने वाले किसी पुलिस लोक सेवक को आज तक किसी प्रकार की सजा नहीं दिया जाना। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक बार फिर से दोहराये गये इस आदेश का क्या हाल होगा, सहज कल्पना की जा सकती है!

ये तो हुई बात सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय की उक्त टिप्पणियों तथा निर्देशों की, लेकिन जमीनी हकीकत इतनी भयावह है कि धारा 498-ए के कहर से निर्दोष पीड़ितों को मुक्ति दिलाने के लिये इससे भी कहीं आगे बढकर किसी भी संवैधानिक संस्था को विचार कर निर्णय करना होगा, क्योंकि फौरी उपचारों से इस क्रूर व्यवस्था से निर्दोष पतियों को न्याय नहीं मिल सकता है। अत: इसके बारे में कुछ व्यवहारिक और कानूनी मुद्दे विचारार्थ प्रस्तुत हैं :-

1. पति-पत्नी के बीच किसी सामान्य या असामान्य विवाद के कारण यदि पत्नी की ओर से भावावेश में या अपने पीहर के लोगों के दबाव में धारा 498-ए के तहत एक बार पति के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा देने के बाद इसमें समझौता करने का कानूनी प्रावधान नहीं हैं!

ऐसे हालातों में इस कानूनी व्यवस्था के तहत एक बार मुकदमा अर्थात् एफआईआर दर्ज करवाने के बाद वर पक्ष को मुकदमें का सामना करने के अलावा, समाधान का अन्य कोई रास्ता ही नहीं बचता है। इसलिये यदि हम वास्तव में ही विवाह और परिवार नाम की सामाजिक संस्थाओं को बचाने के प्रति गम्भीर हैं तो हमें इस मामले में मुकदमे को वापस लेने या किसी भी स्तर पर समझौता करने का कानूनी प्रावधान करना होगा। अन्यथा वर्तमान हालातों में मुकदमा सिद्ध नहीं होने पर, मुकदमा दायर करने वाली पत्नी के विरुद्ध झूठा मुकदमा दायर करने के अपराध में स्वत: आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की कानूनी व्यवस्था किया जाना प्राकृतिक न्याय की मांग है, क्योंकि स्वयं सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि 85 फीसदी मामलों में धारा 498-ए के आरोप सिद्ध ही नहीं हो पाते हैं। इस स्थिति से कैसे निपटा जाये और झूठे आरोप लगाने वाली पत्नियों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पूरी तरह से मौन है। जो दुखद है।

2. वरपक्ष के जिस किसी भी सदस्य का, वधुपक्ष की ओर से धारा 498-ए के तहत एफआईआर में नाम लिखवा दिया जाता है, उन सभी सदस्यों को बिना ये जाने कि उन्होंने कोई अपराध किया भी है या नहीं उनकी गिरफ्तारी करना पुलिस अपना परमकर्त्तव्य समझती रही है!

मेरी राय में उक्त हालातों के लिये मूल में दो बड़े कारण हैं-

पहला तो यह कि धारा 498-ए के मामले में साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान न्यायशास्त्र के उस मौलिक सिद्धान्त का सरेआम उल्लंघन करते हैं जिसके अनुसार आरोप लगाने के बाद आरोपों को सही सिद्ध करने का दायित्व अभियोजन या वादी पक्ष पर नहीं डालकर आरोपी को पर डालता है कि वह अपने आपको निर्दोष सिद्ध करे। जिसके चलते पुलिस को इस बात से कोई लेना-देना नहीं रहता कि कोर्ट से यदि कोई आरोपी छूट भी जाता है तो इसके बारे में उससे कोई सवाल-जवाब किये जाने की समस्या होगी।दूसरा बड़ा कारण यह है कि ऐसे मामलों में पुलिस को अपना रौद्र रूप दिखाने का पूरा अवसर मिलता है और सारी दुनिया जानती है कि रौद्र रूप दिखाते ही सामने वाला निरीह प्राणी थर-थर कांपने लगता है! पुलिस व्यवस्था तो वैसे ही अंग्रेजी राज्य के जमाने की अमानवीय परम्पराओं और कानूनों पर आधारित है! जहॉं पर पुलिस को लोगों की रक्षक बनाने के बजाय, लोगों को डंडा मारने वाली ताकत के रूप में जाना और पहचाना जाता है! ऐसे में यदि कानून ये कहता हो कि 498-ए में किसी को भी बन्द कर दो, यह चिन्ता कतई मत करो कि वह निर्दोष है या नहीं! क्योंकि पकड़े गये व्यक्ति को खुद को ही सिद्ध करना होगा कि वह दोषी नहीं, निर्दोष है। अर्थात् अरोपी को अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने के लिये स्वयं ही साक्ष्य जुटाने होंगे। ऐसे में पुलिस को पति-पक्ष के लोगों का तेल निकालने का पूरा-पूरा मौका मिल जाता है।

इसलिये जरूरी है कि संसारभर में मान्यताप्राप्त न्यायशास्त्र के इस सिद्धान्ता को धारा 498-ए के मामले में भी लागू किया जाना चाहिये कि आरोप लगाने वाली पत्नियॉं इस बात के लिये जिम्मेदार हों कि उनकी ओर से लगाये गये आरोप पुख्ता तथा सही हैं और मंगठन्थ नहीं हैं। जिन्हें न्यायालय के समक्ष कानूनी प्रक्रिया के तहत सिद्ध करना उनका कानूनी दायित्व है। जब तक इस प्रावधान को नहीं बदला जाता है, तब तक गिरफ्तारी को पारदर्शी बनाने की औपचारिकता मात्र से कुछ भी नहीं होने वाला है।

3. अनेक बार तो खुद पुलिस एफआईआर को फड़वाकर, अपनी सलाह पर पत्नीपक्ष के लोगों से ऐसी एफआईआर लिखवाती है, जिसमें पति-पक्ष के सभी छोटे बड़े लोगों के नाम लिखे जाते हैं। जिनमें-पति, सास, सास की सास, ननद-ननदोई, श्‍वसुर, श्‍वसुर के पिता, जेठ-जेठानियॉं, देवर-देवरानिया, जेठ-जेठानियों और देवर-देवरानिया के पुत्र-पुत्रियों तक के नाम लिखवाये जाते हैं। अनेक मामलों में तो भानजे-भानजियों तक के नाम घसीटे जाते हैं।

पुलिस ऐसा इसलिये करती है, क्योंकि जब इतने सारे लोगों के नाम आरोपी के रूप में एफआईआर में लिखवाये जाते हैं तो उनको गिरफ्तार करके या गिरफ्तारी का भय दिखाकर आरोपियों से अच्छी-खायी रिश्‍वत वसूलना आसान हो जाता है (जिसे स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकारा है) और अपनी तथाकथित जॉंच के दौरान ऐसे आलतू-फालतू-झूठे नामों को रिश्‍वत लेकर मुकदमे से हटा दिया जाता है। जिससे अदालत को भी अहसास कराने का नाटक किया जाता है कि पुलिस कितनी सही जॉंच करती है कि पहली ही नजर में निर्दोष दिखने वालों के नाम हटा दिये गये हैं। ऐसे में इस बात का भी कानूनी प्रावधान किया जाना जरूरी है कि यदि इस बात की पुष्टि किसी भी स्तर पर हो जाती है कि धारा 498-ए के मामले में किसी व्यक्ति का असत्य नाम लिखवाया गया है तो उसी स्तर पर एफआईआर लिखवाने वाली के विरुद्ध मुकदमा दायर किया जाकर कार्यवाही की जावे।

इस प्रकार हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि न मात्र धारा 498-ए के मामलों में बल्कि जिन किन्हीं भी मामलों या प्रावधानों में कानून का दुरुपयोग हो रहा है, वहॉं पर किसी प्राभावी संवैधानिक संस्था को लगातार सतर्क और विवेकपूर्ण निगरानी रखनी चाहिये, जिससे कि ऐसे मामलों में धारा 498-ए की जैसी स्थिति निर्मित ही नहीं होने पाये। क्योंकि आज धारा 498-ए के मामले में सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों के बाद भी इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं दिख रहा है, बल्कि कुछ लोगों का तो यहॉं तक कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के कारण दहेज उत्पीड़कों के हौंसले बढेंगे, जिससे पत्नियों पर अत्याचार बढ सकते हैं। फिर भी मेरा साफ तौर पर मानना है कि जब तक इस कानून में से आरोपी के ऊपर स्वयं अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने का भार है, तब तक पति-पक्ष के निर्दोष लोगों के ऊपर होने वाले अन्याय को रोक पाना या उन्हें न्याय प्रदान करना वर्तमान व्यवस्था में असम्भव है, क्योंकि धारा 498-ए के मामले में साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान न्याय का गला घोंटने वाले, अप्राकृतिक और अन्यायपूर्ण हैं! अत; धारा 498-ए के कहर से निर्दोष पतियों को बचाने में सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान निर्णय भी बेअसर ही सिद्ध होना है!

प्रवीण जैन अधिवक्ता रायपुर
9406133701
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सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act)

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सूचना का अधिकार अधिनियम कानून
images (28)भारत के संसद द्वारा पारित एक कानून है जो 12 अक्तूबर, 2005 को लागू हुआ (15 जून, 2005 को इसके कानून बनने के 120 वें दिन)। भारत में भ्रटाचार को रोकने और समाप्त करने के लिये इसे बहुत ही प्रभावी कदम बताया जाता है। इस नियम के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को सरकारी रेकार्डों और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है। जम्मू एवं काश्मीर मे यह जम्मू एवं काश्मीर सूचना का अधिकार अधिनियम २०१२ के अन्तर्गत लागू है।

भारत सरकार ने सदैव अपने नागरिको के जीवन को सहज, सुचारु बनाने पर बल दिया है और इस प्रकार इसे ध्‍यान में रखते हुए भारत को पूरी तरह लोक तांत्रिक बनाने के लिए आरटीआई अधिनियम स्‍थापित किया गया है।

आरटीआई का अर्थ है सूचना का अधिकार और इसे संविधान की धारा 19 (1) के तहत एक मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया है। धारा 19 (1), जिसके तहत प्रत्‍येक नागरिक को बोलने और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता दी गई है और उसे यह जानने का अधिकार है कि सरकार कैसे कार्य करती है, इसकी क्‍या भूमिका है, इसके क्‍या कार्य हैं आदि।

प्रत्‍येक नागरिक कर का भुगतान करता है अत: इसे अधिकार मिलते हैं और साथ ही उसे यह जानने का पूरा अधिकार है कि उसके द्वारा कर के रूप में दी गई राशि का उपयोग कैसे किया जा रहा है।

सूचना का अधिकार अधिनियम प्रत्‍येक नागरिक को सरकार से प्रश्‍न पूछने का अधिकार देता है और इसमें टिप्‍पणियां, सारांश अथवा दस्‍तावेजों या अभिलेखों की प्रमाणित प्रतियों या सामग्री के प्रमाणित नमूनों की मांग की जा सकती है।

आरटीआई अधिनियम पूरे भारत में लागू है (जम्‍मू और कश्‍मीर राज्‍य के अलावा) जिसमें सरकार की अधिसूचना के तहत आने वाले सभी निकाय शामिल हैं जिसमें ऐसे गैर सरकारी संगठन भी शामिल है जिनका स्‍वामित्‍व, नियंत��

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आरटीआई शिकायत
आरटीआई अधिनियम सभी नागरिकों को एक लोक प्राधिकारी के पास उपलब्‍ध जानकारी तक पहुंच का अधिकार प्रदान करता है। यदि आपको किसी जानकारी देने से मना किया गया है तो आप केन्‍द्रीय सूचना आयोग में अपनी अपील / शिकायत जमा करा सकते हैं।

इस अधिनियम के प्रावधान 18 (1) के तहत यह केन्‍द्रीय सूचना आयोग या राज्‍य सूचना आयोग का कर्तव्‍य है, जैसा भी मामला हो, कि वे एक व्‍यक्ति से शिकायत प्राप्‍त करें और पूछताछ करें।

जो केन्‍द्रीय सूचना लोक अधिकारी या राज्‍य सूचना लोक अधिकारी के पास अपना अनुरोध जमा करने में सफल नहीं होते, जैसा भी मामला हो, इसका कारण कुछ भी हो सकता है कि उक्‍त अधिकारी या केन्‍द्रीय सहायक लोक सूचना अधि‍कारी या राज्‍य सहायक लोक सूचना अधिकारी, इस अधिनियम के तहत नियुक्‍त न किया गया हो जैसा भी मामला हो, ने इस अधिनियम के तहत अग्रेषित करने के लिए कोई सूचना या अपील के लिए उसके आवेदन को स्‍वीकार करने से मना कर दिया हो जिसे वह केन्‍द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्‍य लोक सूचना अधिकारी या धारा 19 की उपधारा (1) में निर्दिष्‍ट राज्‍य लोक सूचना अधिकारी के पास न भेजे या केन्‍द्रीय सूचना आयोग अथवा राज्‍य सूचना आयोग में अग्रेषित न करें, जैसा भी मामला हो। 

जिसे इस अधिनियम के तहत कोई जानकारी तक पहुंच देने से मना कर दिया गया हो। ऐसा व्‍यक्ति जिसे इस अधिनियम के तहत निर्दिष्‍ट समय सीमा के अंदर सूचना के लिए अनुरोध या सूचना तक पहुंच के अनुरोध का उत्तर नहीं दिया गया हो।

जिसे शुल्‍क भुगतान करने की आवश्‍यकता हो, जिसे वह अनुपयुक्‍त मानता / मानती है। जिसे विश्‍वास है कि उसे इस अधिनियम के तहत अपूर्ण, भ्रामक या झूठी जानकारी दी गई है। इस अधिनियम के तहत अभिलेख तक पहुंच प्राप्‍त करने या अनुरोध करने से संबंधित किसी मामले के विषय में।

सूचना के अधिकार के अर्न्तगत कौन से अधिकार आते हैं?
सूचना का अधिकार 2005 प्रत्येक नागरिक को शक्ति प्रदान करता है कि वो:

सरकार से कुछ भी पूछे या कोई भी सूचना मांगे.किसी भी सरकारी निर्णय की प्रति ले.किसी भी सरकारी दस्तावेज का निरीक्षण करे.किसी भी सरकारी कार्य का निरीक्षण करे.किसी भी सरकारी कार्य के पदार्थों के नमूने ले.

अपनी अर्जी मैं कहाँ जमा करुँ?
आप ऐसा पीआईओ या एपीआईओ के पास कर सकते हैं. केंद्र सरकार के विभागों के मामलों में, 629 डाकघरों को एपीआईओ बनाया गया है. अर्थात् आप इन डाकघरों में से किसी एक में जाकर आरटीआई पटल पर अपनी अर्जी व फीस जमा करा सकते हैं. वे आपको एक रसीद व आभार जारी करेंगे और यह उस डाकघर का उत्तरदायित्व है कि वो उसे उचित पीआईओ के पास भेजे.

क्या इसके लिए कोई फीस है? मैं इसे कैसे जमा करुँ?
हाँ, एक अर्ज़ी फीस होती है. केंद्र सरकार के विभागों के लिए यह 10रु. है. हालांकि विभिन्न राज्यों ने भिन्न फीसें रखीं हैं. सूचना पाने के लिए, आपको 2रु. प्रति सूचना पृष्ठ केंद्र सरकार के विभागों के लिए देना होता है. यह विभिन्न राज्यों के लिए अलग- अलग है. इसी प्रकार दस्तावेजों के निरीक्षण के लिए भी फीस का प्रावधान है. निरीक्षण के पहले घंटे की कोई फीस नहीं है लेकिन उसके पश्चात् प्रत्येक घंटे या उसके भाग की 5रु. प्रतिघंटा फीस होगी. यह केन्द्रीय कानून के अनुसार है. प्रत्येक राज्य के लिए, सम्बंधित राज्य के नियम देखें. आप फीस नकद में, डीडी या बैंकर चैक या पोस्टल आर्डर जो उस जन प्राधिकरण के पक्ष में देय हो द्वारा जमा कर सकते हैं. कुछ राज्यों में, आप कोर्ट फीस टिकटें खरीद सकते हैं व अपनी अर्ज़ी पर चिपका सकते हैं. ऐसा करने पर आपकी फीस जमा मानी जायेगी. आप तब अपनी अर्ज़ी स्वयं या डाक से जमा करा सकते हैं.

क्या सूचना प्राप्ति की कोई समय सीमा है?
हाँ, यदि आपने अपनी अर्जी पीआईओ को दी है, आपको 30 दिनों के भीतर सूचना मिल जानी चाहिए. यदि आपने अपनी अर्जी सहायक पीआईओ को दी है तो सूचना 35 दिनों के भीतर दी जानी चाहिए. उन मामलों में जहाँ सूचना किसी एकल के जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करती हो, सूचना 48 घंटों के भीतर उपलब्ध हो जानी चाहिए.

मुझे सूचना प्राप्ति के पश्चात् क्या करना चाहिए?
इसके लिए कोई एक उत्तर नहीं है. यह आप पर निर्भर करता है कि आपने वह सूचना क्यों मांगी व यह किस प्रकार की सूचना है. प्राय: सूचना पूछने भर से ही कई वस्तुएं रास्ते में आने लगतीं हैं. उदाहरण के लिए, केवल अपनी अर्जी की स्थिति पूछने भर से आपको अपना पासपोर्ट या राशन कार्ड मिल जाता है. कई मामलों में, सड़कों की मरम्मत हो जाती है जैसे ही पिछली कुछ मरम्मतों पर खर्च हुई राशि के बारे में पूछा जाता है. इस तरह, सरकार से सूचना मांगना व प्रश्न पूछना एक महत्वपूर्ण चरण है, जो अपने आप में कई मामलों में पूर्ण है.

लेकिन मानिये यदि आपने आरटीआई से किसी भ्रष्टाचार या गलत कार्य का पर्दाफ़ाश किया है, आप सतर्कता एजेंसियों, सीबीआई को शिकायत कर सकते हैं या एफ़आईआर भी करा सकते हैं. लेकिन देखा गया है कि सरकार दोषी के विरुद्ध बारम्बार शिकायतों के बावजूद भी कोई कार्रवाई नहीं करती. यद्यपि कोई भी सतर्कता एजेंसियों पर शिकायत की स्थिति आरटीआई के तहत पूछकर दवाब अवश्य बना सकता है. हांलांकि गलत कार्यों का पर्दाफाश मीडिया के जरिए भी किया जा सकता है. हांलांकि दोषियों को दंड देने का अनुभव अधिक उत्साहजनक है. लेकिन एक बात पक्की है कि इस प्रकार सूचनाएं मांगना और गलत कामों का पर्दाफाश करना भविष्य को संवारता है. अधिकारियों को स्पष्ट सन्देश मिलता है कि उस क्षेत्र के लोग अधिक सावधान हो गए हैं और भविष्य में इस प्रकार की कोई गलती पूर्व की भांति छुपी नहीं रहेगी. इसलिए उनके पकडे जाने का जोखिम बढ जाता है.

प्रवीण जैन अधिवक्ता रायपुर
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उपभोक्ता फोरम में कैसे पाये न्याय?

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उपभोक्ता फोरम में कैसे जायें?
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आपका पैसा आपकी मेहनत है। जब आप बाजार में कुछ खरीद रहे होते हैं, तो दरअसल आप अपनी मेहनत के बदले खरीद रहे होते हैं। इसलिए आप चाहते हैं कि बाजार में आपको धोखा न मिले। इसके लिए आप पूरी सावधानी बरतते हैं। लेकिन बाजार तो चलता ही मुनाफे पर है। अपना मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में दुकानदार, कंपनी, डीलर या सर्विस प्रवाइडर्स आपको धोखा दे सकते हैं। हो सकता है आपको बिल्कुल गलत चीज मिल जाए। या फिर उसमें कोई कमी पेशी हो। अगर ऐसा होता है और कंपनी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है, तो चुप न बैठें। आपकी मदद के लिए कंस्यूमर फोरम मौजूद हैं। यहां शिकायत करें। शिकायत करने का पूरा तरीका हम आपको बता रहे हैं।

किसके खिलाफ हो शिकायत ?
कंस्यूमर फोरम में दुकानदार , मैन्युफेक्चर्र , डीलर या फिर सर्विस प्रवाइडर के खिलाफ शिकायत की जा सकती है।

कौन कर सकता है शिकायत ?
1. पीड़ित कंस्यूमर
2. कोई फर्म , भले ही यह रजिस्टर्ड न हो
3. कोई भी व्यक्ति , भले ही वह खुद पीड़ित न हुआ हो
4. संयुक्त हिंदू परिवार
5. को-ऑपरेटिव सोसाइटी या लोगों को कोई भी समूह
6. राज्य या केंद्र सरकारें
7. कंस्यूमर की मौत हो जाने की स्थिति में उसके कानूनी वारिस

कैसे करें शिकायत ?
शिकायत के साथ आपको ऐसे डॉक्युमेंट्स की कॉपी देनी होगी, जो आपकी शिकायत का समर्थन करें। इनमें कैश मेमो, रसीद, अग्रीमेंट्स वैगरह हो सकते हैं। शिकायत की 3 कॉपी जमा करानी होती हैं। इनमें एक कॉपी ऑफिस के लिए और एक विरोधी पार्टी के लिए होती है। शिकायत व्यक्ति अपने वकील के जरिए भी करवा सकता है और खुद भी दायर कर सकता है। शिकायत के साथ पोस्टल ऑर्डर या डिमांड ड्राफ्ट के जरिए फीस जमा करानी होगी। डिमांड ड्राफ्ट या पोस्टल ऑर्डर प्रेजिडंट, डिस्ट्रिक्ट फोरम या स्टेट फोरम के पक्ष में बनेगा। हर मामले के लिए फीस अलग-अलग होती है, जिसका ब्यौरा हम नीचे दे रहे हैं।

कहां करें शिकायत ?
20 लाख रुपये तक के मामलों की शिकायत डिस्ट्रिक्ट कंस्यूमर फोरम में की जाती है। 20 लाख रुपये से ज्यादा और एक करोड़ रुपये से कम के मामलों की शिकायत स्टेट कंस्यूमर फोरम में की जाती है। एक करोड़ 1cc004e6937661bc2f1d2d1f856f8c26
रुपये से ज्यादा के मामलों के लिए नैशनल कंस्यूमर फोरम में शिकायत होती है। हर कंस्यूमर फोरम में एक फाइलिंग काउंटर होता है, जहां सुबह 10.30 बजे से दोपहर 1.30 बजे तक शिकायत दाखिल की जा सकती है।

प्रवीण जैन अधिवक्ता रायपुर
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बलात्कार का अपराध क्या है ?

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भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के मुताबिक बलात्कार तब घटित होता है जब एक पुरुष किसी महिला के साथ सम्भोग करता है । ऐसा संभोग जो
जो उसकी इक्छा के विरुद्ध हो, अथवाबिना उसकी सहमति के,उसकीसहमति से , जब उसकी इस प्रकार की सहमति, उसे या उससे संबंधित किसी व्यक्तिके मृत्यु  का भय अथवा गंभीर चोट करने का भय दिखाकर किया गया हो, याउसकी सहमति से, जब पुरुष उसे धोखे में रखकर उसे यह विश्वास दिलाता है कि वह पुरुष उस महिला का वैधिक पति है या ,उसकी सहमति से, जो उसकी मानसिक पागलपन की वजह से हो, अथवा नशे की हालत में हो, अथवा नशे कीहालत में हो या जब वह अपनी सहमति से उत्पन्न होने वाले परिणामों को समझनेमें असमर्थ हो।सहमति या बिना सहमति के सम्भोग- जब महिला 16 साल से कम अवस्था में हो।

संभोग का मतलब क्या है?
बलात्कारके अपराध में छेदन करना आवश्यक होता है – चाहे वह थोड़ा सा क्यों ना हो।छेदन की मात्रा कितनी है, इसका कोई महत्व नहीं होता है, यह आवश्यक नहीं कियोनि विदीर्ण हुई हो और वहां वीर्यपात होना चाहिए। बिना थोड़ा छेदन किएबलात्कार नहीं हो सकता है ।

पत्नी के साथ बलात्कार

भारतीयदंड संहिता की धारा 376 के मुताबिक जब कोई पुरुष अपनी सोलह साल से कम कीपत्नी के साथ सम्भोग करता है तो वह बलात्कार समझा जायेगा। यहां कानून कीनीति यह है कि वह अपरिपक्व अवस्था वाली बच्चियों को सम्भोग से सुरक्षाप्रदान करे।

नपुंसक बलात्कार नहीं कर सकता है।
सम्भोगकरने में असमर्थ होने के कारण इस प्रकार के पुरुष को इस कृत्य का प्रयासकरने के लिए दोषी नहीं माना जा सकता है , लेकिन उसे धारा 354 के तहत अश्लीलव्यवहार करने के लिए दोषी ठहराया जा सकता है ।

बलात्कार के बाद बचाव
नजदीक के किसी भी पंजीकृत डॉक्टर से अपनी जांच कराएं। यह आवश्यक नहीं है कि वह डॉक्टर एक सरकारी डॉक्टर हो।जितनीजल्दी संभव हो सके, नजदीक के �

सामूहिक बलात्कार
जब किसी महिला से कई व्यक्ति मिलकर बलात्कार करते हैं तो उसे सामूहिक बलात्कार कहा जाता है । इसमें बलात्कार एक या कई लोगों के द्वारा किया जा सकता है , लेकिन इस दशा में सभी को बराबर का दोषी माने जायेंगे।

संरक्षकों द्वारा लैंगिक अपराध
अगर एक कर्मचारी या जेल का प्रबंधक , हवालात घर या महिला या बच्चों की संस्थाओं के अधीक्षक या प्रबंधक अपनी सरकारी स्थिति का फायदा उठकर किसी महिला को बहला – फुसलाकर लैंगिक समागम करता है तो उसे 5 साल की सजा और जुर्माना हो सकता है ।हालांकि इस प्रकार का लैंगिक समागम बलात्कार का एक आरोप नहीं समझा जायेगा।अगर किसी अस्पताल का कर्मचारी या प्रबंधक अपनी आधिकारिक स्थिति का नाजायज लाभ उठाते हुए उस अस्पताल की किसी महिला के साथ लैंगिक समागम करते हैं तो उन्हें 5 साल की सजा और जुर्माने की सजा हो सकती है ।हालांकि ये अपराध भी बलात्कार नहीं समझा जायेगा ।

बलात्कार की कोशिश करना
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 511 के तहत बलात्कार के लिए कोशिश करना भी अपराध है ।बलात्कार की कोशिश करने पर जुर्माने के साथ ही आजीवन कारावास के दण्ड की आधी सजा दी जाती है ।

बलात्कार पीड़ित की पहचान प्रकाशित करना अपराध
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 228-अ के मुताबिक धारा 376, 376-ए, 376-बी, 376सी और 376डी के तहत यौन अपराधों से पीड़ित व्यक्ति का नाम या उसकी पहचान प्रकाशित करना एक अपराध है , जिसके लिए दो वर्ष की सजा व जुर्माना हो सकता है ।हालांकि अपराध की जांच पड़ताल करते समय किसी पुलिस अधिकारी के द्वारा सद्भावना में पीड़िता का नाम बताया जाना कोई अपराध नहीं समझा जाता है ।अगर पीड़िता प्रकाशित करने की अनुमति दे दे तो भी अपराध नहीं माना जायेगापीड़िता की मृत्यु , नाबालिग या पागल होने पर नजदीकी रिश्तेदार की सहमति से प्रकाशित करना अपराध नहीं माना जायेगा ।

बलात्कार से बचाव का अधिकार
भारतीय दंड संहिता की धारा 100(|||) के मुताबिक महिलाओं को ये अधिकार है कि वह अपने ऊपर आक्रमण करने वाले पुरुष को मार दें, अगर उन्हें पता चलता है कि वह पुरुष उस पर बलात्कार की नीयत से आक्रमण करता है ।परीक्षण के दौरान महिला को अदालत के सामने प्रमाणित करने पड़ता है कि उसके पास आक्रमणकारी द्वारा बलात्कार से बचने के लिए उसको मारने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं बचा था ।

शील भंग करना या प्रतिष्ठा को नीचा दिखाना
महिलाओं पर घृणित अपराध उनके ऊपर अश्लील प्रहार(अश्लील कमेंट) करना है, जिससे उनकी गरिमा या शील भंग करने की नीयत स्पष्ट होती है।यह एक संज्ञेय अपराध है ।इसमें जमानत मिल जाती है ।यह राजीनामा करने योग्य अपराध नहीं है ।इस मामले का प्रथम या द्वितीय श्रेणी के दण्डाधिकारी परीक्षण करते हैं।इस अपराध में दो साल का कारावास या जुर्माना और अथवा दोनों की सजा देने का प्रावधान है ।

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498a (दहेज़ एक्ट) का दुरूपयोग यह कानून आप के लिए किस क़दर खतरनाक है और आप किस प्रकार खतरे में है और यह समाज के लिए कितना घातक है —

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आपकी पत्नी द्वारा पास के पुलिस स्टेशन पर 498a दहेज़ एक्ट या घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक लिखित झूठी शिकायत करती है तो आप, आपके बुढे माँ- बाप और रिश्तेदार फ़ौरन ही बिना किसी विवेचना के गिरफ्तार कर लिए जायेंगे और गैर-जमानती टर्म्स में जेल में डाल दिए जायेंगे भले चाहे की गई शिकायत फर्जी और झूठी ही क्यूँ न हो! आप शायेद उस गलती की सज़ा पा जायेंगे जो आपने की ही नही और आप अपने आपको निर्दोष भी साबित नही कर पाएँगे और अगर आपने अपने आपको निर्दोष साबित कर भी लिया तब तक शायेद आप आप न रह सके बल्कि समाज में एक जेल याफ्ता मुजरिम कहलायेंगे और आप का परिवार समाज की नज़र में क्या होगा इसका अंदाजा आप लगा सकते है
498a दहेज़ एक्ट या घरेलू हिंसा अधिनियम को केवल आपकी पत्नी या उसके सम्बन्धियों के द्वारा ही निष्प्रभावी किया जा सकता है आपकी पत्नी की शिकायत पर आपका पुरा परिवार जेल जा सकता है चाहे वो आपके बुढे माँ- बाप हों, अविवाहित बहन, भाभी (गर्भवती क्यूँ न हों) या 3 साल का छोटा बच्चा शिकायत को वापस नही लिया जा सकता और शिकायत दर्ज होने के बाद आपका जेल जाना तय है ज्यादातर केसेज़ में यह कम्पलेंट झूठी ही साबित होती है और इस को निष्प्रभावी करने के लिए स्वयं आपकी पत्नी ही आपने पूर्व बयान से मुकर कर आपको जेल से मुक्त कराती है आपका परिवार एक अनदेखे तूफ़ान से घिर जाएगा साथ ही साथ आप भारत के इस सड़े हुए भ्रष्ट तंत्र के दलदल में इस कदर फसेंगे की हो सकता आपका या आपके परिवार के किसी फ़र्द का मानसिक संतुलन ही न बिगड़ जाए यह कानून आपकी पत्नी द्वारा आपको ब्लेकमेल करने का सबसे खतरनाक हथियार है इसलिए आपको शादी करने से पूर्व और शादी के बाद ऐसी भयानक परिस्थिति का सामना न करना पड़े इसके लिए कुछ एहतियात की
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