प्रथम सूचना रिपोर्ट FIR, पुलिस के कर्तव्य नागरिकों के अधिकार…

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प्रथम सूचना रिपोर्ट(एफआईआऱ)
पुलिस थाने या चौकी में दर्ज की  गयी ऐसी पहली अपराध की रिपोर्ट को प्रथम सूचना रिपोर्ट या एफआईआर कहा जाता है।

हर व्यक्ति अपने तरीके से अपराध के उस समय ज्ञात ब्योरे देते हुए रिपोर्ट लिखवा सकता है । पुलिस इस एफआईआऱ को अपने रिकॉर्ड में दर्ज कर लेगी और पावती के रुप में एक प्रति रिपोर्ट दर्ज कराने वाले को देगी। पुलिस सभी प्रकार के अपराधों की रिपोर्ट दर्ज करती है , लेकिन केवल संज्ञेय अपराधों के मामलों में ही पुलिस स्वयं जांच पड़ताल कर सकती है । असंज्ञेय अपराधों के मामलों में पुलिस पहले मामले को मजिस्ट्रेट को पेश करती है और उससे आदेश प्राप्त होने के बाद ही वह जांच-पड़ताल शुरु कर सकती है । संज्ञेय अपराधों में गंभीर किस्म के अपराध आते हैं जैसे कि हत्या , रेप , डकैती , लूट आदि। सीआरपीसी की धारा-154 के तहत संज्ञेय अपराध में पुलिस एफआईआर दर्ज करना जरूरी है।  अगर थाने में मौजूद पुलिस कर्मचारी/अधिकारी रिपोर्ट लिखने से मना कर दे तो शिकायतकर्ता उस क्षेत्र के पुलिस अधीक्षक या उप पुलिस अधीक्षक को डाक से रिपोर्ट भेज सकता है ।  अगर रिपोर्ट लिखवाने वाला/वाली अनपढ़ हो तो ड्यूटी पर तैनात पुलिस अधिकारी उसके बताए विवरण के मुताबिक उसकी ओर से रिपोर्ट लिखनी चाहिए और उसे पढ़कर सुनानी चाहिए। ऐसी एफआईआर को सुनकर शिकायतकर्ता करने वाला/वाली रिपोर्ट पर अपने अंगूठे का निशान लगा सकता/सकती है। अगर शिकायतकर्ता को लगता है कि रिपोर्ट में तथ्य ठीक नहीं लिखे गये हैं तो वह रिपोर्ट लिखने वाले पुलिस अधिकारी से आवश्यक संशोधन करने को कह सकता है ।

एफआईआर में निम्नलिखित विषय हों
अभियुक्त का नाम और पता हो अपराध होने का दिन,स्थान तथा समय हो अपराध करने का तरीका तथा उसके पीछे नीयत आदि हो साक्षी का परिचय हो अपराध से सम्बद्ध सभी विशेषताएं हों 

पुलिस की पूछताछ
अभियुक्त को पूछताछ के दौरान पुलिस से सहयोग करना चाहिए। अभियुक्त को सावधान भी रहना चाहिए कि पुलिस उसे झूठे मामले में न फंसाए। अभियुक्त को किसी कागज पर बिना पढ़े अथवा उसमें लिखी बातों से सहमत हुए बिना हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए। किसी महिला और 15 साल से छोटे पुरुष को पूछताछ के लिए घर से बाहर नहीं ले जाया जा सकता है । उनसे घर पर ही पूछताछ की जा सकती है । व्यक्ति मजिस्ट्रेट से अनुरोध कर सकता है कि उससे पूछताछ का उचित वक्त दिया जाए। पूछताछ के दौरान व्यक्ति ऐसे किसी सवाल का जवाब देने से मना कर सकता है , जिससे उसे लगे कि उसके खिलाफ आपराधिक मामला बनाया जा सकता है । व्यक्ति पूछताछ के दौरान कानूनी या अपने किसी मित्र की सहायता की मांग कर सकता है और आम तौर पर ऐसी सहायता की मांग पुलिस मान लेती है।

गिरफ्तारी के लिए मजिस्ट्रेट का वारंट:
व्यक्ति को किसी भी मामले में गिरफ्तार करने के दौरान उसका अपराध तथा गिरफ्तारी का आधार बताया जाना चाहिए। उसे यह भी बताया जाना चाहिए कि उस अभियोग पर उसे जमानत पर छोड़ा जा सकता है या नहीं । गिरफ्तारी के समय व्यक्ति पुलिस से वकील की मदद लेने की इजाजत मांग सकता है । उसके मित्र, संबंधी भी उसके साथ थाने तक जा सकते हैं । अगर व्यक्ति गिरफ्तारी का प्रतिरोध नहीं कर रहा हो तो गिरफ्तारी के समय पुलिस उससे दुर्व्यवहार नहीं कर सकती है, ना ही मारपीट कर सकती है । अगर वह पुराना अपराधी नहीं है या उसके हथकड़ी नहीं लगाने पर भाग जाने का खतरा नहीं है , तो गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को हथकड़ी नहीं पहनाई जा सकती है । अगर किसी महिला को गिरफ्तार किया जाना है , तो पुलिस का सिपाही उसे छू तक नहीं सकता है । गिरफ्तारी के तुरंत बाद व्यक्ति को थाने के प्रभारी अथवा मजिस्ट्रेट के पास लाया जाना चाहिए। किसी भी स्थिति में , गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।( इसमें गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के पास लाए जाने का समय शामिल नहीं है) किसी भी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना, 24 घंटे से ज्यादा समय तक पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। गिरफ्तार व्यक्ति डॉक्टर द्वारा अपने शरीर की चिकित्सा परीक्षण की मांग कर सकता है ।

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कैदियों को सेक्स सबंध बनाने का अधिकार

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पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट मुताबिक जेल में बंद कैदियों को भी अब अपने पति या पत्नी से यौन संबंध बनाने का अधिकार मिलेगा। संविधान के मुताबिक ये एक मौलिक अधिकार है और कैदियों को इससे वंचित नहीं रखा जा सकता है। हाईकोर्ट का कहना है कि एक रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया जाए। जो जेलों की हालत को समझकर एक दिशा-निर्देश बनाए। कमेटी ये तय करेगी कि किस तरह के कैदियों को और किस परिस्थिति में ये अधिकार दिया जाएगा। जेल के अंदर सुविधा बनाई जाएगी, जहां कैदी की पत्नी या उसका पति उससे मिल सके। कोर्ट के मुताबिक किस कैदी को यह अधिकार दिया जाएगा, ये सरकार तय करेगी। इसमें सामाजिक सरोकार और कानून व्यवस्था का ख्याल रखा जाएगा। कोर्ट के मुताबिक हर व्यक्ति को अपने खानदान को बढ़ाने का आधिकार है।
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FIR दर्ज ना होने पर है शिकायत के प्रावधान जानें…

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एफआईआर दर्ज ना होने पर शिकायत(परिवाद) :-
जब पुलिस अधिकारी एफआईआर के आधार पर कार्यवाही नहीं करता है, तब व्यथित व्यक्ति उस मजिस्ट्रेट को शिकायत कर सकता है , जिसे उस अपराध पर संज्ञान लेने की अधिकारिता है । अगर एफआईआर दर्ज न हो तो पीड़ित पक्ष इलाके के अडिशनल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट या चीफमेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट के सामने सीआरपीसी की धारा -156 (3) के तहत शिकायत कर सकता है। हर जिला अदालत में एक अडिशनल चीफ मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट बैठता है। दिल्ली से बाहर के मामले में चीफ जूडिशियल मैजिस्ट्रेट ( सीजेएम ) के सामने शिकायत की जा सकती है। इसके बाद अदालत मामले को संबंधित मैजिस्ट्रेट को रेफर करती है। इसके बाद मैजिस्ट्रेट के सामने शिकायती अपना पक्ष रखता है और उससे संतुष्ट होने के बाद मैजिस्ट्रेट एफआईआर दर्ज करने का आदेश देता है। अगर मैजिस्ट्रेट ने अर्जी खारिज कर दी तो उस अदालती फैसलेके खिलाफ ऊपरी अदालत में अर्जी दाखिल की जा सकती है।dama-mujer-estatua-de-la-justicia-ideal-regalo-para-abogado-891301-MLA20290727602_042015-F
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किसी निर्णय के अनुपालन में निर्धारित की गई समय सीमा…

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निर्णय के अनुपालन की समय-सीमा
अगर किसी को उसकी जमीन या अन्य अचल संपत्ति से गैर-कानूनी तरीके से वंचित कर दिया गया है तो वंचित किए जाने के 12 साल की अवधि में अपनी संपत्ति की वापसी का दावा दायर कर देना चाहिए । हालांकि सरकार तीस साल तक ऐसा दावा कर सकती है । किसी ऋण या चल संपत्ति की वापसी का मुकदमा भुगतान की तारीख या उसकी प्राप्ति स्वीकृति की तारीख के 3 साल के भीतर किया जाना चाहिए। वस्तुओं के मूल्य के बारे में मुकदमा संबंधित सौदे के 3 साल के भीतर कर दिया जाना चाहिए। किसी हमले से हुए नुकसान या मृत्यु के मुआवजे का दावा घटना के 1 साल के भीतर कर दिया जाना चाहिए। किसी करार को किए जाने के 3 साल के भीतर उसको लागू कराने के लिए अदालत में जा सकते हैं । जबकि पंजीकृत करार के मामले में छह साल तक अदालत में जा सकते हैं । किसी न्यास (ट्रस्ट) की संपत्ति की वापसी के लिए किसी न्यासी के खिलाफ कभी भी मुकदमा दायर किया जा सकता है । केवल सजा के जुर्माने वाले आपराधिक मामलों में छह महीने के अंदर मुकदमा कर दिया जाना चाहिए। एक साल तक के कारावास के मामले में एक साल तक अदालत में जा सकते हैं । जबकि ज्यादा गंभीर अपराध के मामले में तीन साल बाद तक अदालत जा सकते हैं ।1476353526-2912
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लोक अदालत क्या है, किन प्रकरणों की सुनवाई लोक अदालत में की जाएगी?

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लोक अदालत
लोक अदालतों के द्वारा लोगों के आपसी विवाद , जो न्यायालय के
समक्ष हों , उनका निपटारा मित्रतपूर्ण ढंग से स्वेच्छा से समाधान निकाला जाता है। लोक अदालत वादी-प्रतिवादियों , कानून व्यवसाय के सदस्यों, सामाजिक कार्य में रत समूहों तथा न्यायिक अधिकारियों के मुकदमे के निष्पक्ष समझौते तक पहुंचने की प्रक्रिया में प्रबुद्ध भागीदारी का मौका देती है । लोक अदालत का निर्णय अधिनिर्णय है औऱ इसके द्वारा दिया गया फैसला अदालतों से मान्यता प्राप्त है । ऐसे फौजदारी मामलों को छोंड़कर  जिनमें समझौता गैरकानूनी है , अन्य सभी तरह के मामले लोक अदालतों द्वारा निपटाए जाते हैं । लोक अदालतों के फैसले दीवानी अदालतों के फैसलों की तरह सभी पक्षों को मान्य होते हैं । लोक अदालत में तमाम तरह के सिविल और समझौतावादी क्रिमिनल मामलों का निपटारा किया जाता है। क्रिमिनल केस दो तरह के होते हैं : समझौतावादी और गैर – समझौतावादी क्रिमिनल केस। गैर-समझौतावादी मामलों को लोक अदालत में रेफर नहीं किया जाता है। इऩमें  बलात्कार,  हत्या,  लूट,  देशद्रोह,  डकैती,  हत्या की कोशिश आदि से संबंधित मामले शामिल हैं। हालांकि समझौतावादी मामलों को लोक अदालत में भेजा जा सकता है। इनमें बिजली चोरी , मारपीट , मोटर दुर्घटना दावा ट्रिब्यूनल, चेक बाउंस, ट्रैफिक चालान, लेबर लॉ आदि से संबंधित मामले होते हैं। इसके लिए जरूरी है कि दोनों पक्ष मामले को निपटाने के लिए तैयार हों।  जब एक पक्ष केस को लोक अदालत में रेफर करने के लिए अदालत से आग्रह करता है तो अदालत दूसरे पक्ष से उसकी इच्छा जानने की कोशिश करती है। जब दोनों पक्षों में समझौते की गुंजाइश दिखती है तो मामले को लोकअदालत में रेफर कर दिया जाता है। लोक अदालत में पेश होकर दोनों पक्ष अपनी बात कोर्ट के सामने रखते हैं। अदालत दोनों पक्षों को सुनती है और मामले का निपटारा ��

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कौन निःशुल्क न्याय प्राप्त कर सकता है, किन किन प्रावधान के तहत न्यायालय कानूनी सहायता प्रदान करती है? जानें…

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images (20)निःशुल्क न्याय का प्रावधान किनको और कैसे

उच्चतम न्यायालय का आदेश
राज्य ऐसे अभियोगी को जो गरीबी के कारण कानूनी सेवाएं प्राप्त नहीं कर सकता है । उसे नि:शुल्क वैधिक सेवाएं उपलब्ध कराए। अगर मामले की स्थिति व न्याय की मांग है तो अभियुक्त के लिए वकील नियुक्त करे, पर यह तभी हो सकता है जब अभियुक्त को वकील की नियुक्ति पर आपत्ति ना हो। मुकदमे की कार्यवाही के दौरान वैधिक सेवाएं न प्रदान कराना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है । वकील की नियुक्ति के लिए अभियुक्त को आवेदन देने की आवश्यकता नहीं है । मजिस्ट्रेट अभियुक्त को उसके अधिकार से अवगत कराएगा औऱ वकील की नियुक्ति के लिए पूछेगा सरकार का ये कर्तव्य है कि वह कैदियों को निर्णय की कॉपी उपलब्ध कराए। गिरफ्तार व्यक्ति अपनी पसंद के वकील से परामर्श कर सकता है । वकील से परामर्श करने का अधिकार हर व्यक्ति को प्राप्त है ।

सीपीसी के आदेश 32 व 33 के अनुसार-
निम्नलिखित गरीब व्यक्ति कानूनी सहायता प्राप्त कर सकते हैं-

जिस व्यक्ति के पास मुकदमा करने के लिए और कोर्ट की फीस जमा करने के लिए पर्याप्त साधन न हों। तलाक के मामले में कोई भी महिला कानूनी सहायता प्राप्त कर सकती है। अऩुसूचित जाति और अऩुसूचित जाति का कोई भी व्यक्ति कानूनी सहायता प्राप्त कर सकता है। ऐसा व्यक्ति, जिसके पास डिक्री के निष्पादन में कुर्क नहीं की जा सकने वाली संपत्ति तथा विवादग्रस्त विषय के अतिरिक्त 1000 रुपए से अधिक की संपत्ति न हो। उसे कानूनी सहायता मिल सकती है। भरण-पोषण(गुजारा भत्ता) के मामले में कोई भी व्यक्ति कानूनी सहायता प्राप्त कर सकता है। बलात्कार से पीड़ित कोई भी महिला नि:शुल्क सहायता प्राप्त कर सकती है। अपहृत महिला सरकार से कानूनी सहायता प्राप्त कर सकती है । 16 साल से कम उम्र में अपराध करने वाला वक्ति कानूनी सहायता प्राप्त कर सकता है । 11000 रुपए से कम आमदनी वाला कैदी या व्यक्ति सरकार से कानूनी सहायता प्राप्त कर सकता है । कोई भी बालक, महिला, देह व्यापार, बेगार, लोक उपद्रव, जातिगत हिंसा, जातिगत अत्याचार, बाढ़, मानसिक नर्सिंग होम में रहने वाला व्यक्ति कानूनी सहायता प्राप्त करने का हकदार है।

सीपीसी 1908 के आदेश 44 के अनुसार
निर्धन व्यक्ति बिना न्यायालय शुल्क दिए अपीलीय न्यायालय में अपील कर सकता है ।

राष्ट्रीय वैधिक सेवा अधिनियम के उद्देश्य
वैधिक सेवा प्राधिकरणों का गठन, समाज के कमजोर वर्गों को नि:शुल्क तथा सक्षम वैधिक सेवाएं उपलब्ध कराना, यह सुनिष्चित करना कि आर्थिक या अन्य असमर्थताओं के कारण किसी भी नागरिक को न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित ना किया जा सके, लोक-अदालतों को संगठित कर ऐसी वैधिक प्रणाली की व्यवस्था करना जिससे समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो सके।

विधिक सेवा का अधिकार नि:शुल्क विधिक सेवा प्राप्त करने के अधिकारी व्यक्ति

अनुच्छेद 23 के अंतर्गत मानव दुर्व्यापार तथा बलातश्रम से पीड़ित व्यक्ति, महिलाएं, बच्चे , मानसिक या अन्य रुप से अपंग व्यक्ति, सामूहिक दुर्घटना , जातीय हिंसा, जातीय अत्याचार, बाढ़, सूखा , भूकंप या औद्योगिक दुर्घटना से पीड़ित व्यक्ति, संरक्षण गृह, बालगृह , मानसिक अस्पतालों के रोगी, बालगृह तथा मानसिक रोगियों के चिकित्सालयों में रह रहे लोग, 9000  रुपए से कम की सालाना आमदनी या इससे अधिक राशि जो राज्य सरकार ने निर्धारित की हो,  यदि उसका मामला सुप्रीम कोर्ट के अलावा अन्य किसी कचेहरी में हो, वह व्यक्ति जिसकी सालाना आय 12000 रुपए से कम हो , या इससे अधिक राशि राज्य सरकार द्वारा निर्धारित की जा सकती है या उसका मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में हो, अनुसूचित जाति और जनजाति से संबंधित लोग,. बेगार और अनैतिक देहव्यापार के शिकार लोग, औद्योगिक कामगार औऱ गरीब लोग(राज्य सरकार की तय सीमारेखा के अंदर गरीब)।
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FIR कैसे करें, किन बातों का ख्याल रखें, क्या है जीरो Fir जाने…

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1476353526-2912FIR में नागरिकों के अधिकार

भारत जैसे विशाल देश में विधि-व्यवस्था को बनाये रखने हेतु हमारे संविधान ने कानून-व्यवस्था की नींव रखी. देश के वीर जवानों एवं अन्य पैरामिलिट्री फ़ोर्स के उलट हमारी पुलिस-व्यवस्था का मुख्य कार्य आतंरिक शांति एवं सुरक्षा को बनाये रखना होता है. मगर क्या आपने कभी सोचा है की किसी भी अपराध के छानबीन एवं गुनाहगार तक पहुँचने की यात्रा की शुरुआत आखिर कहाँ से होती है? जी हाँ आपने सही सोचा, ये होती है FIR या फिर फर्स्ट इन्वेस्टीगेशन रिपोर्ट से.

आपके द्वारा किसी भी अपराध के विरुद्ध लिखाई गयी कंप्लेंट ही पुलिस को आप पर हुई अपराध के बारे में सुचित करती हैं एवं पुलिस आपके शिकायतों का निबटारा करने हेतु बाध्य होते हैं, और हो भी क्यों न आखिर ये उनकी ज़िम्मेदारी जो ठहरी. मगर कभी-कभी ये भी देखा जाता हैं कि आम लोगो के बीच फैली जागरूकता में कमी एवं पुलिसिया कार्यवाही में अरुचि लोगों को पुलिस तक अपनी शिकायतें पहुँचने नहीं देती एवं अमूमन आगे की कार्यवाही हेतु FIR रजिस्टर्ड करने में पुलिस वाले आना-कानी करने लगते हैं.

जनता के बीच फैली इन्ही भ्रांतियों को दूर कर लोगो को उनके मौलिक अधिकारों से जुडी FIR एवं FIR सम्बंधित समस्त जानकारियों की एक सूची बना हमारे लीगल एक्सपर्ट ने जनता का मार्गदर्शन करने की कोशिश की हैं. हमे विश्वास हैं की ये आपको जरुर पसंद आएगी.

FIR से जुड़े आपके अधिकार:
ध्यान दे FIR एक शिकायत होती है जो किसी व्यक्ति/समूह के मूल अधिकारों के हनन पर उपरोक्त थाने में दर्ज करायी जा सकती हैं. आइये एक नज़र डालते हैं FIR से जुड़े आपके अधिकारों पर

FIR, पीड़ित या फिर पीड़ित के किसी भी जानकर या फिर किसी भी अन्य व्यक्ति द्वारा दर्ज करायी जा सकती हैं एवं पुलिस कर्मी किसी भी रूप में आपके शिकायतों को सुनने एवं उसे दर्ज करने से मना नहीं कर सकते. आप अपने शिकायतों को लिखित या मौखिक में भी दर्ज करा सकते हैं. ध्यान दे मौखिक में दर्ज करायी गयी FIR को आप पुलिसकर्मी द्वारा सुनाने का भी अनुरोध कर सकते हैं. अपने द्वारा दर्ज शिकायतों को पूरी तरह सुनने एवं पढने के बाद ही आप FIR रिपोर्ट में हस्ताक्षर करे. इस कार्य में कोई भी आप पर दबाव नहीं डाल सकता. ध्यान दे आपके द्वारा दर्ज की गयी FIR ही कानू-व्यवस्था की नींव होती हैं अतः FIR दर्ज करते वक़्त सही एवं सटीक जानकारियां देना अपनी ज़िम्मेदारी समझे.

अब ये ZERO FIR क्या होता हैं:
अक्सर FIR दर्ज करते वक़्त आगे के कार्यवाही को सरल बनाने हेतु इस बात का ध्यान रखा जाता हैं कि घटनास्थल से संलग्न थाने में ही इसकी शिकायत दर्ज हो परन्तु कई बार ऐसे मौके आते हैं जब पीड़ित को विपरीत एवं विषम परिस्थितियों में किसी बाहरी पुलिस थाने में केस दर्ज करने की जरुरत पड़ जाती हैं. मगर अक्सर ऐसा देखा जाता हैं कि पुलिस वाले अपने सीमा से बहार हुई किसी घटना के बारे में उतने गंभीर नहीं दिखाए देते. ज्ञात हो कि FIR आपका अधिकार हैं एवं आपके प्रति हो रही असमानताओ का ब्यौरा भी, अतः सरकार ने ऐसे विषम परिस्थितियों में भी आपके अधिकारों को बचाए रखने हेतु ZERO FIR का प्रावधान बनाया है. इसके तहत पीड़ित व्यक्ति अपराध के सन्दर्भ में अविलम्ब कार्यवाही हेतु किसी भी पुलिस थाने में अपनी शिकायत दर्ज करवा सकते हैं एवं बाद में केस को उपरोक्त थाने में ट्रान्सफर भी करवाया जा सकता हैं.

कब करे zero FIR का उपयोग:
हत्या, रेप एवं एक्सीडेंट्स जैसे अपराध जगह देखकर नहीं होती या फिर ऐसे केसेस में ये भी हो सकता है कि अपराध किसी उपरोक्त थाने की सीमा में न घटित हो. ऐसे केसेस में तुरंत कार्यवाही की मांग होती है परन्तु बिना FIR के कानून एक कदम भी आगे नहीं चल पाने में बाध्य होती हैं. अतः ऐसे मौको में मात्र कुछ आई-विटनेस एवं सम्बंधित जानकारियों के साथ आप इसकी शिकायत नजदीकी पुलिस स्टेशन में करवा सकते हैं. ध्यान रहे लिखित कंप्लेंट करते वक़्त FIR की कॉपी में हस्ताक्षर कर एक कॉपी अपने पास रखना न भूले.

ये ज्ञात हो की FIR दर्ज कर कानूनी प्रक्रिया को आगे बढाने की सारी ज़िम्मेदारी पुलिसवालो का प्रधान उद्देश्य होती हैं अतः कोई भी पुलिस वाला सिर्फ ये कहकर आपका FIR लिखने से मना नहीं कर सकता कि ” ये मामला हमारे सीमा से बाहर का है”

प्रवीण जैन अधिवक्ता रायपुर
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भारतीय न्याय प्रक्रिया और कानून में मिले नागरिकों को मौलिक अधिकार व कर्तव्य

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  1. images (19)नागरिक का मौलिक कर्तव्य

प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करें. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे. भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे. देश की रक्षा करे. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे. हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका निर्माण करे. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करे. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करे. सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे. व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे. माता-पिता या संरक्षक द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों हेतु प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना (86वां संशोधन).

नागरिकों को सलाह
गैरकानूनी काम करने पर कानून की जानकारी नहीं होने का  बहाना नहीं बनाएं। अगर आपकी गलती से किसी को नुकसान होता है तो आप ये नहीं कह सकते हैं कि गैरइरादतन ऐसा हो गया।जैसे लापरवाही से गाड़ी चलाना । अगर आपको कोई काम गैरकानूनी लगता है तो कानून अपने हाथ में लेने की कोशिश ना करें । केवल आत्मरक्षा में आवश्यक बचाव करें। किसी सरकारी कर्मचारी या अदालत के कानूनी आदेश/निर्देश/बुलावे(समन) को नहीं मानना या गलत जानकारी देना अपराध है। किसी अधिकारी या कर्मचारी से काम करवाने के लिए उसे उपहार या पैसा देना अपराध है। किसी दस्तावेज में कोई बदलाव ना करें या गलती ठीक करने की कोशिश नहीं करें । ऐसा करना अपराध माना जायेगा।

इन कामों में सावधानी बरतें
सिविलियन थल सेना , नौसेना और वायुसेना की ड्रेन ना पहनें और तमगे ना लगाएं। राष्ट्रीय ध्वज को सही तरीके से फहराएं औऱ रखें। ध्वज का अपमान ना करें। सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान या नशा ना करें । महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार ना करें । झूठी धारणाएं और अफवाहें ना फैलाएं। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान ना पहुंचाएं।
सामान्य कानूनी प्रावधान
संविधान और कानून की नजर में सभी बराबर हैं और सभी को कानूनी संरक्षण पाने का अधिकार है । मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर आप सीधे उच्चन्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जा सकते हैं । अपने जानमाल की रक्षा के लिए काम कर सकते हैं । ये अपराध नहीं माने जायेंगे । जैसे बाढ़ आने पर बस्ती को बचाने के लिए नहर को तोड़ देना, मरीज की जान बचाने के लिए उसका पैर काट देना। आत्मरक्षा के लिए हमलावर पर हमला कर सकते हैं , लेकिन एक सीमा तक ही ऐसा कर सकते हैं ।

राष्ट्रीय गौरव अपमान
राष्ट्रीय गौरव अपमान निवारण अधिनियम 1971 की धारा के अन्तर्गत तीन वर्ष के कारावास या जुर्माना या दोनों से दंडित करने का प्रावधान है। इस धारा को जमानतीय घोषित नहीं किया गया है इस कारण से यह धारा अपराध अजमानतीय है। अजमानतीय होने के कारण इस धारा के अन्तर्गत अभियुक्त को गिरफ्तार कर के मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है।

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घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून लागू

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सरकार को तभी कानून बनाना पड़ता है, जब सामजिक बंधन ढीले पड़ जाते हैं। कानूनी डंडे से सजा का भय दिखाया जाता है। इधर ऐसे कई कानून बने हैं जिनका उद्देश्य परिवार में सुख-चैन लाना है। ऐसा सोचा गया कि घरेलू हिंसा निषेधात्मक कानून बनने पर घरेलू हिंसा समप्त होगी? पर सच तो यह है कि इन कानूनों से सामजिक समस्याएं कम नहीं होतीं। फिर भी कानून बनने आवश्यक हैं। पारिवारिक परेशानियों के लिए कितनी बार कोई कचहरी जाए। कोर्ट का काम परिवार चलाना नहीं है। हर परिवार में पुलिस भी नहीं बैठाई जा सकती। कानून का डंडा भय उत्पन्न करने के लिए है।
भारत की प्रथम महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी मानती हैं कि महिलाएँ ही महिलाओं पर अत्याचार का पहला कारण होती हैं ,यदि महिलाएँ तय कर लें कि जिस घर में महिलाएँ हैं वहां महिलाओं पर अत्याचार नहीं होगा, तो सब कुछ बदल सकता है। उनका मानना है कि समाज में महिला की स्थिति बदल रही है और आगे भी बदलेगी, लेकिन पाँच हजार साल की मानसिकता बदलने में वक्त लगेगा। हमें घरेलू हिंसा के ग्राफ में बढ़ोतरी दिख रही है, अभी तो महिलाओं पर अत्याचार के मामले और बढ़ते हुए दिखेंगे, लेकिन इसका कारण यह है कि महिलाओं में जागरुकता आ रही है और ज़्यादा महिलाएँ शिकायत करने पहुँच रही हैं। लेकिन शिकायत दर्ज करवाने के बाद भी सजा मिलने की दर बहुत कम है और सिर्फ सौ में से दो लोगों को सजा मिल पाती है।
सेंटर फॉर सोशल रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार तीन साल प्रताडि़त होने के बाद एक हजार में से एक महिला ही शिकायत दर्ज करवाने पहुँचती है।
भारत में घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून अमल में आ गया है जिसमें महिलाओं को दुर्व्यवहार से सुरक्षा प्रदान करने का प्रावधान है। यह कानून महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाएगा क्योंकि केवल भारत में ही लगभग 70 प्रतिशत महिलाएँ किसी न किसी रूप में इसकी शिकार हैं।
घरेलू हिंसा विरोधी कानून से बड़ी उम्मीदें हैं। इसके तहत पत्नी या फिर बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रह रही महिला मारपीट, यौन शोषण, आर्थिक शोषण या फिर अपमानजनक भाषा के इस्तेमाल की परिस्थिति में कार्रवाई कर सकेगी।
अब बात-बात पर महिलाओं पर अपना गुस्सा उतारने वाले पुरुष घरेलू हिंसा कानून के फंदे में फंस सकते हैं।
इतना ही नहीं, लडक़ा न पैदा होने के लिए महिला को ताने देना,
उसकी मर्जी के बिना उससे शारीरिक संबंध बनाना या
लडक़ी के न चाहने के बावजूद उसे शादी के लिए बाध्य करने वाले पुरुष भी इस कानून के दायरे में आ जाएंगे।
इसके तहत दहेज की मांग की परिस्थिति में महिला या उसके रिश्तेदार भी कार्रवाई कर पाएँगे।
महवपूर्ण है कि इस कानून के तहत मारपीट के अलावा यौन दुर्व्यवहार और अश्लील चित्रों, फिल्मों कोञ् देखने पर मजबूर करना या फिर गाली देना या अपमान करना शामिल है।
पत्नी को नौकरी छोडऩे पर मजबूर करना या फिर नौकरी करने से रोकना भी इस कानून के दायरे में आता है।
इसके अंतर्गत पत्नी को पति के मकान या फ्लैट में रहने का हक होगा भले ही ये मकान या फ्लैट उनके नाम पर हो या नहीं।
इस कानून का उल्लंघन होने की स्थिति में जेल के साथ-साथ जुर्माना भी हो सकता है।
लोगों में आम धारणा है कि मामला अदालत में जाने के बाद महीनों लटका रहता है, लेकिन अब नए कानून में मामला निपटाने की समय सीमा तय कर दी गई है। अब मामले का फैसला मैजिस्ट्रेट को साठ दिन के भीतर करना होगा।
प्रवीण जैन 
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